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Friday 15 June 2012

पद्य - ७३ - अहँक नेह केर छोट सनि जे छवि अछि (गीत)


अहँक नेह केर छोट सनि जे छवि अछि
(गीत)


एहेन प्रीत निश्छल, बिना स्वार्थ भावेँ,
छी दुर्लभ वा शायद कतहु नञि भेटै छै ।।





अहाँ सञो जे भेटल क्षणिक नेह हमरा,
तकर  मुल्य  कहियो,  चुका ने सकै छी ।
अहँक नेह केर छोट सनि जे छवि अछि,
ततेक  गाढ़  अंकित,  मेटा ने सकै छी ।।



टाकाक  जोरेँ  बहुत  किछु  भेटै  छै,
की काया, की मोन – सब सद्यः बिकै छै ।
एहेन प्रीत निश्छल, बिना स्वार्थ भावेँ,
छी दुर्लभ वा शायद कतहु नञि भेटै छै ।।



छी जल तँ धरा पर, प्रति चारि तीनेँ,
मुदा  प्यास, बहुतो  मेटा ने सकैत’छि ।
किञ्चित् जँ तृट्नाश सामर्थ्येँ सक्षम,
     तदपि तृप्ति - अमृत - परम ने भेटैत’छि ।।



हरेक  राति  प्रायः  उगैत’छि  चानहु,
पुनमि चान मासेँ एकहि बेर अबैत’छि ।
पुनमि तँ पुनमि छी, मुदा स्वच्छ निर्मल,
    शरद राति पुनिमक बहुत कम भेटैत’छि ।।



बहुत छी  सरोवर – सरित  एहि धरा पर,
   ओ मानस – सरोवर एकहि टा एतए अछि ।
जतए जा भेटैत’छि, मनक शान्ति अनुपम,
ओ  कैलास  एक्कहि  आ सद्यः एकहि अछि ।।





विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ५४ , अंक ‍१०७ , ‍०१ जून २०१२ मे “स्तम्भ ३॰२” मे प्रकाशित ।





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