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Friday 15 June 2012

पद्य - ७२ - बिसरि ने सकब (गीत)


बिसरि ने सकब
(गीत)


भेँटि  सकलहुँ ने, सरिपहु बिसरि ने सकब ।
दूर  रहितहुँ,  हृदय  मे  अहीं  तँ  रहब ।।




भेँटि  सकलहुँ ने,सरिपहु बिसरि ने सकब ।
दूर  रहितहुँ,  हृदय  मे  अहीं  तँ  रहब ।।



एहि जिनगीक बाटेँ कतेको भेटत ।
संग लागत अनेको, अनेको छँटत ।
मुदा हृदयक ओ कोना अहीं लए अनामति,
पवित्रहि रहत ।
ओ पवित्रे रहत ।।



थीक जिनगी प्रवाहित, प्रवाहित रहत ।
संग अपना मे बहुतो समाहित करत ।
मुदा चञ्चल आवेगक श्रोतेँ प्रतिष्ठित,
अहीं टा रहब ।
से अहीं टा रहब ।।



दीप  बहुतो जरत,  चान  बहुतो उगत ।
सूर्य बहुतो उगत, उगि कऽ डुबिते रहत ।
मुदा जिनगी मे ध्रुव सन दिशाबोधकारी,
अहीं टा छलहुँ ।
आ अहीं टा रहब ।।



सातो समुद्रो मे जल थिक बहूते ।
छै सरिता अनेको, सरोवर बहूते ।
मुदा ओ सरोवर पूरित प्रीति पय सँ,
अहाँ लग रहए जे,
कतहुँ नञि भेटत ।
ऐ कतहु नञि भेटत ।।






विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ५४ , अंक ‍१०७ , ‍०१ जून २०१२ मे “स्तम्भ ३॰२” मे प्रकाशित ।



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