Pages

मिथिलाक पर्यायी नाँवसभ

मिथिलाभाषाक (मैथिलीक) बोलीसभ

Powered By Blogger

Friday 15 June 2012

पद्य - ७५ - रौदी – दाही (बाल कविता)


रौदी – दाही
(बाल कविता)



एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।




ई  विदेह – मिथिला  केर  धरती,
अजबहि एक्कर खिस्सा यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



देखू   सूरज   माथ  चढ़ै  अछि ।
माथ सँ टप - टप घाम चुबै अछि ।
धरती जरइत अछि  धह - धह कऽ,
बरखा  दाइ   निपत्ता  यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



रस्तेँ  –  पएरेँ,    धूर    उड़ैए ।
कुक्कुरहु  हकमए,  छाँह  तकैए ।
कोन   दैत्य   केर  पहरा  पड़लै,
पोखरि – सूखल   खत्ता यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



जोतल  खेत  पड़ल अछि परती ।
दमकल केर अछि बाढ़ल चलती ।
दमकल केर सेहो दम अछि निकलल,
जड़ि गेल बीया  कत्ता  यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



पानि पतालहि धँसैत गेल अछि ।
कऽल ईनारहु भँसकि गेल अछि ।
सूतल   इन्द्रदेव   केँ   मनबथि,
झिझिया खेलथि  धीया यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



बरखा बरिसल,  लोक नचैतछि ।
हऽर - बरद आ बीया तकैतछि ।
जहिना - तहिना, जतबा - जे हो,
धनरोपनी भेल  बढ़िञा यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



बरखा झर – झर बरसि रहल अछि ।
हृदय लोक केर  हहरि  रहल अछि ।
इन्द्रक कोप,  की  सभ मेहनति केँ,
करत   फेर  बेपत्ता  यौ  ?
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



कोशी  उमरल,  कमला  उफनल ।
बागमती – गण्डक  सेहो  चतरल ।
सहमि  गेल   हँसइत   जिनगी,
की करतीह कोसी मैय्या यौ ?
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।



बान्ह टुटल कत धार फुटल नव ।
भाँसि दहायल, जलमज्जित सभ ।
लोक   मरैए,   हक्कन   कनैए,
गामक – गाम  निपत्ता यौ ।
एहि ठाँ  जिनगी  हारि ने मानय,
केहनो विषम  समस्या यौ ।।





विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका,   वर्ष , मास ५४,  अंक ‍१०७,  ‍दिनांक - ०१ जून २०१२ , स्तम्भ – बालानां कृते, मे प्रकाशित । 



No comments:

Post a Comment