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Monday 5 March 2012

पद्य - ४५ - “अहंकार” (कविता)


“अहंकार”
(कविता)




बानर सन मूँह भेलन्हि हुनकर, सच ! अहं काल केर भोजन छी ।
की  मनुक्ख  केर गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।






“अहंकार”   छी   भूत    एहेन,  बड़का – बड़का   केँ  खएलक  ई ।
की  मनुक्ख  केर गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।


नारद  सन  ऋषि  केँ  अहं  भेलन्हि,
निज मन पर हमर नियण्त्रण अछि ।
कहलन्हि – के  हमरा  डोला सकत ?
त्रिभुवन केँ - मोर  आमण्त्रण अछि ।
ब्रम्हाक   तनय,   विष्णूक    भक्त,
हर विषय  सँ हम - निर्लिप्त थिकहुँ ।
की    काम – वासना – क्रोध – लोभ,
की  मोह – द्वेष,  सभ  जय कयलहुँ ।
बानर सन मूँह भेलन्हि हुनकर, सच ! अहं काल केर भोजन छी ।
की  मनुक्ख  केर गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।


सर्जक    बड़का  –  हम   कथाकार,
हम    गीतकार   वा   गजलकार ।
हम   के  छी – ककरहु  कही  तुच्छ,
आ  कही  “कूथि  कऽ  लिखनिहार” ?
की  नीक – बेजाए ?  तकर  निर्णय,
करताह पाठक – जन, सुधी – समाज ।
हम   तऽ  लेखक,  लिखबाक   कर्म,
हम   के   छी  परमिट  बँटनिहार ?
जँ छी महान, तऽ लोक कहत; अपनहि निज गाल बजओने की ।
की  मनुक्ख  केर गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।


हमरा   सम्मुख  केओ  अनचिन्हार,
वा  हमर  केओ  परिचित  चिन्हार ।
जनिका   जतबा  जे  शक्य  लिखथु,
हर जन  केँ  अभिव्यक्तिक अधिकार ?
सभ   केँ   माथा   सोचबाक   लेल,
आ   हाथ   भेटल   लिखबाक लेल ।
नञि   जन्मजात  केओ   सिद्धहस्त,
छी  समय,  निपुण  बनबाक  लेल ।
इएह मूँह – हाथ  आदर दैत’छि, आ बहुतहु केँ लतिअओलक ई ।
की  मनुक्ख  केर गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।


जँ   छी   आलोचक  –  समालोचना,
नीक  -  बेजाए    सभटा    देखी ।
अपना    खेमा,    अनकर    खेमा,
दुहु   कात    परिक्षण    समलेखी ।
अपना    खेमा    अधलाहो    नीक,
अनका  जँ  कही  हम - सब  तीते ।
तऽ  चानि  पर खापड़ि  निश्चित अछि,
छी  कालक  गति   अनुपम,  ठीके ।
 “समय” हाथ निर्णय सभ – टा, कत दुर्ग – दर्प भँसिअओलक ई ।
की  मनुक्ख  केर  गप्प  कही,  देवहु  केँ  सबक़  सिखओलक  ई ।।



सन्दर्भ संकेत -

१) ॰ एहि कविता केर विषय वस्तुक प्रेरणा “विदेह” पर विगत २ महीना सँ चलि रहल वार्तालाप सभ सँ मनःस्फुर्त भेल अछि । तेँ फेसबुक पर “विदेह” कम्युनिटीक एडमिन लोकनि केँ सादर धन्यवाद ।
२) ॰ ई सन्दर्भ “विष्णु – पुराण” मे वर्णित एक कथा सँ लेल गेल अछि ।
३) ॰ एहि ठाम प्रयुक्त “अनचिन्हार” शब्द “अपरिचित” केर परिचायक थिक (चिन्हारक उनटा) । कोनहु व्यक्तिविशेष सँ एकर कोनहु प्रकारक सम्बन्ध नञि अछि ।


विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ५१, अंक ‍१०१ , ‍०१ मार्च २०१२ मे “स्तम्भ ३॰७” मे प्रकाशित ।



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