“अहंकार”
(कविता)
बानर सन मूँह भेलन्हि हुनकर, सच ! अहं काल केर भोजन छी ।
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
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“अहंकार” छी भूत एहेन, बड़का – बड़का केँ खएलक ई । १
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
नारद सन
ऋषि केँ अहं भेलन्हि, २
निज मन पर हमर नियण्त्रण
अछि ।
कहलन्हि – के हमरा
डोला सकत ?
त्रिभुवन केँ - मोर आमण्त्रण अछि ।
ब्रम्हाक तनय,
विष्णूक भक्त,
हर विषय सँ हम - निर्लिप्त थिकहुँ ।
की काम – वासना – क्रोध – लोभ,
की मोह – द्वेष,
सभ जय कयलहुँ ।
बानर सन मूँह भेलन्हि
हुनकर, सच ! अहं काल केर भोजन छी ।
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
सर्जक बड़का – हम
कथाकार,
हम गीतकार वा
गजलकार ।
हम के छी – ककरहु
कही तुच्छ,
आ कही “कूथि
कऽ लिखनिहार” ?
की नीक – बेजाए ?
तकर निर्णय,
करताह पाठक – जन, सुधी –
समाज ।
हम तऽ
लेखक, लिखबाक कर्म,
हम के
छी परमिट बँटनिहार ?
जँ छी महान, तऽ लोक कहत;
अपनहि निज गाल बजओने की ।
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
हमरा सम्मुख
केओ अनचिन्हार, ३
वा हमर केओ परिचित चिन्हार ।
जनिका जतबा जे शक्य
लिखथु,
हर जन केँ अभिव्यक्तिक
अधिकार ?
सभ केँ
माथा सोचबाक लेल,
आ हाथ
भेटल लिखबाक लेल ।
नञि जन्मजात
केओ सिद्धहस्त,
छी समय,
निपुण बनबाक लेल ।
इएह मूँह – हाथ आदर दैत’छि, आ बहुतहु केँ लतिअओलक ई ।
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
जँ छी आलोचक
– समालोचना,
नीक -
बेजाए सभटा देखी ।
अपना खेमा,
अनकर खेमा,
दुहु कात
परिक्षण समलेखी ।
अपना खेमा
अधलाहो नीक,
अनका जँ कही
हम - सब
तीते ।
तऽ चानि पर
खापड़ि निश्चित अछि,
छी कालक
गति अनुपम, ठीके ।
“समय” हाथ निर्णय सभ – टा, कत दुर्ग – दर्प
भँसिअओलक ई ।
की मनुक्ख केर गप्प कही, देवहु केँ सबक़ सिखओलक ई ।।
सन्दर्भ संकेत -
१) ॰ एहि कविता केर विषय
वस्तुक प्रेरणा “विदेह” पर विगत २ महीना सँ चलि रहल वार्तालाप सभ सँ मनःस्फुर्त
भेल अछि । तेँ फेसबुक पर “विदेह” कम्युनिटीक एडमिन लोकनि केँ सादर धन्यवाद ।
२) ॰ ई सन्दर्भ “विष्णु – पुराण”
मे वर्णित एक कथा सँ लेल गेल अछि ।
३) ॰ एहि ठाम प्रयुक्त
“अनचिन्हार” शब्द “अपरिचित” केर परिचायक थिक (चिन्हारक उनटा) । कोनहु व्यक्तिविशेष
सँ एकर कोनहु प्रकारक सम्बन्ध नञि अछि ।
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