होरी नञि, होरीक
प्रात रहए
आइ गेल छलहुँ, हुनिका ओहि
ठाँ,
होरी नञि,
होरीक प्रात रहए ।
काजक तऽ सिर्फ बहाना
छल,
छवि - दर्शन केर
अभिलाष रहए ।।
सोझाँ अएलीहि, किछु बात बनल
।
बढ़ि गेल जेना,
मोनक हलचल ।
अति आनन्दित मुखमण्डल
छल,
आनन्दहि बिह्वल
गात रहए ।
आइ गेल छलहुँ, हुनिका ओहि
ठाँ,
होरी नञि,
होरीक प्रात रहए ।।
नयन मिलल, पर थिर ने रहल ।
लाजेँ ने अधर किछु बाजि सकल
।
की भेल ? - हमहु
स्तब्ध रही,
मिलनक अजगुत
एहसास रहए ।
आइ गेल छलहुँ, हुनिका ओहि
ठाँ,
होरी नञि,
होरीक प्रात रहए ।।
नहि रंग - अबीर - गुलाल चलल
।
नहि नयनहि केर ब्यापार चलल ।
पर अधर हुनिक
रक्तिम – रक्तिम,
ओ गाल गुलाबी – लाल रहए ।
आइ गेल छलहुँ, हुनिका ओहि
ठाँ,
होरी नञि,
होरीक प्रात रहए ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष –५, मास –५१ , अंक –१०२ , १५ मार्च २०१२ मे “स्तम्भ
३॰७” मे प्रकाशित ।
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