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Saturday, 26 March 2016

पद्य - ‍१७२ - किताबी कीड़ा (बाल कविता)

किताबी कीड़ा (बाल कविता)



घूसल     रहैछ    किताबहिमे,
ओ  तँऽ  छै   “किताबी कीड़ा” ।*
एहिना  नञि  ई  कहबी  बनलै,
जञो   कहबी,   तँऽ   कीड़ा ।।*

बहुतहि   दिनसँ   राखल   जे,
पुरना  किताब  जञो  फोलब ।
फोलितहि   उज्जर  छोट-क्षिण,
कीड़ाकेँ    भागैत     देखब ।।

माछक  छी   आकार   ओकर,
माछहि सनि ध्रुव दुहु नोकगर ।
बीचमे   छी   फूलल - फूलल,
पएरक  लगाति  छै चौड़गर ।।*


संकेत आ किछु रोचक तथ्य -

* - मैथिलीक एक टा पुरान कहबी ।

* - ओना तँऽ कतेकहु तरहक कीड़ा किताबकेँ नोकशान पहुँचबैत अछि । पर ई विशिष्ट कीड़ा किताबी कीड़ाक नामेँ प्रशिद्ध अछि ।

* - एहि कीड़ाक देह कतेको खण्डमे विभक्त रहैत अछि आ जाहि खण्डसँ खोकर पएर जुड़ल रहैत अछि से सबसँ बेसी चौड़गर होइत अछि ।


मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका विदेह केर ‍198म अंक (‍15 मार्च 2016) (वर्ष 9, मास 99, अंक ‍198) केर बालानां कृते स्तम्भमे प्रकाशित ।


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