के छथि
मैथिल ?
(कविता)
हम मैथिल छी अतिसहनशील, ककरो ने अहित कएलहुँ कहियो ।
अपनहि सीमा
संतुष्ट भेलहुँ, अतिक्रमणक लोभ ने छल
कहियो ।।
हम तरुआरिक नञि अनुगामी,
विद्या – बुद्धिक
अभिलाषी छी ।
कर्कश धनुषक टंकार लागए,
जन्महिसँ मृदु - मितभाषी छी ।
हम शान्तिक हरदम अनुयायी,
धरती ने सिकन्दर
जन्म देलक ।
शोणित बहाय सीमा बढ़बी,
नञि से आकांक्षा जन्म लेलक ।
नञि छी अशोक, अजातशत्रु,
साम्राज्य शोणितक
नञि गढ़लहुँ ।
कायर ने बुझब, जतबा भेटल,
हम ओतबहिमे संतुष्ट भेलहुँ
।
अनको साम्राज्य हो सभ
हमरे, से ईष्ट ने रहल हमर कहियो ।
हम मैथिल छी अतिसहनशील, ककरो ने अहित कएलहुँ कहियो ।।
रहबाक योग्य जे भूमि ने छल,
तकरा रहबा केर योग्य कयल ।१
एखनो भूकम्प आ रौदी – दाही,
तइयो हारि ने
हम मानल ।
ककरो अरजल हस्तिनापुरक,
ने हम कहियो इच्छा रखलहुँ
।
अपना बल पर खाण्डवप्रस्थक,
नव निर्माणक हुब्बा रखलहुँ
।२
इतिहास साक्षी अछि सदिखन,
रक्षार्थेँ शस्त्र उठओने छी ।३
अपना शक्तिक मद – दम्भमे ने,
हम दोसराकेँ धकिअओने छी ।
हमहुँ जीबी, आनो जीबए, नञि ताहिसँ विचलित छी कहियो ।
हम मैथिल छी अतिसहनशील, ककरो ने अहित कएलहुँ कहियो ।।
पर सहनशीलता हम्मर ई,
अपनेक नजरिमे कायरता ।
हमरे श्रम पर अहँ ठाढ़ भेलहुँ,
हमरहि विनाश केर तत्परता ।
एखनहु चेतू ! भ्रम दूर करू !
अनुचित बेबहार अपन बरजू
।
हम्मर अधिकार उचित जे छी,
से हमरा सम्मुख अहँ
परसू ।
नाशहि काल विनाशहि बुद्धि,
डाकक छै कहबी
मिथिलामे ।
बड़ लेल परीक्षा
धैर्यक अहँ,
अन्याय कएल बड़
मिथिलामे ।
इतिहासे फेर कहैत’छि
जे, सांकाश्यक४
दर्प दलल कहियो ।
हम मैथिल छी अतिसहनशील, ककरो ने अहित कएलहुँ कहियो ।।