कालचक्र
(कविता)
हमर ई कविता मौलिक रूपसँ मैथिलीमे
लिखित अछि । ई कविता तहिया लिखल गेल छल जहिया हम कॉलेज
ऑफ आयुर्वेदमे (भारती विद्यापीठ, पूना)
B.A.M.S. द्वितीय ओ तृतीय वर्षक (2nd
& 3rd PROFESSIONAL YEAR) छात्र रही ।
ताहि समएमे महाविद्यालयक छात्र लोकनिमे EXTRA CO-CURRICULAR ACTIVITY केँ बढ़एबाक लेल “निर्मिती”
नामक WALL MAGAZINE पर कविता आदि
साहित्यिक कृति लगाओल जाइत छल जकर संयोजिका श्रीमति
इण्दापुरकर मैडम (तत्कालीन लेक्चरर आ बादमे विभागाध्यक्ष - शारीर क्रिया विभाग)
छलीह । हमहूँ मैथिली कविता लेल प्रस्ताव देल मुदा पाठक आन केओ नञि छलाह
तेँ ओकर हिन्दी अनुवाद (स्वयं द्वारा अनुदित) देब स्वीकृत भेल । ताहि अनुदित रचना
पर स्पष्ट उल्लेख रहैत छल कि मूल रचना “मैथिली” भाषामे अछि । प्रश्न उठि सकैत अछि कि मैथिली कविता मौलिक छल वा हिन्दी ? तेँ निर्मितीमे
देल गेल रचनाक छायाप्रति सेहो संगहि देल जा रहल अछि ।
पन्ना पर पन्ना उनटि रहल,
हर पृष्ठ नवल नित्-नूतन छी ।
जे बीति चुकल से छल अद्भुत,
आबएबाला सेहो अनुपम
छी ।।
ई समय-सरित् अविरल बहइछ,
अप्पन प्रवाह -
गति ओ लयमे ।
हम मूक ठाढ़ भऽ देखि रहल,
हर एक दृश्य अतिविश्मयमे ।।
प्राचीर कतेकहु
ध्वस्त भेल,
कतबा तटबन्ह भेल कवलित ।
फेर ओकरहि सलिल-सुधा-रससँ,
कतबा कोंढ़ी* भेलछि विकसित ।।
एकरहि प्रभाओसँ फेर अगिन,
पाथर मोती बनि निखरि गेल ।
अगनित हीरा पुनि भेल
मलिन,
आ सीसा - टुकड़ी बदलि गेल ।।
जे श्वेत
प्रतीत होइत छल से,
देखल तँऽ कारी - गुजगुज
छल ।
पाषाण-प्रतिम छल जे
लगैत,
खन मोम जेकाँ
देखल पघिलल ।।
के भेल
एतए जे कालचक्रसँ,
बाँचि सकल कहुखन कहियो ?
सुरपुर - जञो
इन्द्र ने बचा सकथि,
की मानव केर हस्ती - कहियौ ??
* एहि कवितामे “कोंढ़ी” शब्दक प्रयोग “पुष्प-कलिका” अथवा
अविकसित फूल वा फूल केर फुलएबासँ पुर्वक अवस्थाक अर्थमे भेल भछि ।
विमर्शः-
कोंढ़ - ई शब्द मैथिलीमे “अनेकार्थक शब्द” जेकाँ प्रयुक्त होइत
अछि । एकर एकटा अर्थ “कुष्ठ वा महाकुष्ठ” (अंग्रेजीक लेप्रसी वा LEPROSY) नामक बेमारीक
सन्दर्भमे होइत अछि । दोसर प्रयोग “डाँढ़” (हिन्दीक “कमर” आ अंग्रेजीक “वेस्ट वा WAIST”) केर सन्दर्भमे
होइत अछि (यथा - कोंढ़ तोड़ि देलक …………. इत्यादि) ।
कल्याणी कोशकार “कोंढ़गर” माने “कलेजगर” बतओलन्हि अछि । मुदा
मैथिलीमे “कोंढ़-करेज” दूनू संगहि-संग सेहो
प्रयुक्त होइत अछि (यथा - ओकरा कोंढ़-करेज काटि कऽ दऽ दितियै की ? …………… आदि) जाहिसँ ई
ध्वनित होइत अछि कि विशिष्ट अर्थमे “कोंढ़” आ “करेज” दूनू अलग-अलग
अर्थ रखैत अछि ।
कोंढ़ी - ईहो शब्द मैथिलीमे “अनेकार्थक शब्द” जेकाँ प्रयुक्त होइत
अछि । एकर पहिल अर्थ पुष्प कलिकाक
(हिन्दीक “कली” आ अंग्रेजीक “फ्लोरल बड् वा FLORAL
BUD”) केर अर्थमे होइत अछि । दोसर प्रयोग
“कुष्ठ-रोगी” केर अर्थमे होइत अछि ।
कोढ़ि - एकर उच्चारण मैथिलीमे “कोइढ़” होइत अछि जकर मतलब अछि
“आलसी” । यथा - कोढ़िआ बड़द, कोढ़िआ मचान आदि ।
कोढ़ - ई शब्द सेहो दू अर्थमे प्रयुक्त अछि । पहिल “कोढ़” रोगसँ ग्रसित व्यक्ति आ
दोसर एहेन ताड़क गाछ जाहिसँ ताड़ी नञि गरैत हो ।
कोंढ़ी आ
कोढ़ी - किछु लेखक लोकनिक मानब छन्हि जे “कोंढ़ी”
शब्द “पुष्प-कलिका” केर परिचायक थिक जखनि कि “कोढ़ी” शब्द “रोग विशेष”केँ निरूपित
करैछ । एहि बातक पुष्टि किछु सीमा धरि “कोढ़ि या कोइढ़” शब्दसँ होइत अछि जकर
निष्पत्ति सम्भवतः “कोढ़ वा कोढ़ी” शब्दसँ भेल अछि । आयुर्वेदमे कुष्ठरोगक (कोढ़क)
प्रमुख कारण आलस्य आ आलस्यकारी भोजन (मधुर ओ स्निग्ध) बताओल गेल अछि आ मैथिलीमे “कोढ़ि या कोइढ़” शब्दक अर्थ सेहो “आलसी” अछि । “कोढ़ि” शब्दक उत्पत्तिक एहि
आधारकेँ मानलासँ “कोढ़” शब्द कुठक परिचायक बूझि
पड़ैछ आ “कोढ़ी” शब्द कुष्ठ रोगीक
परिचायक जखनि कि “कोंढ़ी” शब्द पुष्प कलिकाक रूपमे
प्रयुक्त बूझल जाएत ।
परञ्च सामान्य रूपेण
देखबामे अबैत अछि कि जे केओ जीवन भरि गामहिमे रहलाह (वा रहलीह) आ हिन्दी नञि केर
बराबर जनैत छथि ओ आनुनासिकक प्रयोग करैत पुष्प-कलिका ओ रोग-विशेष दुहुक लेल
“कोंढ़ी” शब्दक प्रयोग करैत छथि । जखनि कि, विशेषतः शहरमे रहनिहार (वा रहनिहारि)
लोक जे हिन्दी नीक जेकाँ जनैत अछि से आनुनासिकक प्रयोग नञि करैछ आ उपरोक्त दुहु
अर्थमे “कोढ़ी” शब्दक प्रयोग करैछ ।
मैथिली
पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका “विदेह” केर 218म अंक (15 जनबरी 2017) (वर्ष 10, मास 109, अंक 218) केर “पद्य” स्तम्भमे प्रकाशित ।
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