सोझ बाट (कविता)
सोचलहुँ बाट ई सोझ, एकर अनुसरण
करी ।
कुटिल वक्र तजि, सरल सोझ केर वरण करी ।।
पर दुनिञामे सोझ कहाँ, कत्तहु धरती
छै ।
बिनु किछु उगने साफ
कहाँ, रहइछ पड़ती छै ।
पड़ती जञो छोड़ल, तँऽ उपजै, काँटे अगबे ।
सरल सोझ आ स्वच्छ सुगम अछि बाटे कतबे ।
जतेक दूर दुर्गम अगम्य, अछि से अतिपावन
।
जतेक विलक्षण विश्मयकारी, ततेक
सोहाओन ।
अखड़ल जकरा, कहलक, बाटेँ हवन करी ।
अति विशिष्ट लए, ओहि कातेँ अहँ
गमण करी ।।
एहि सृष्टिक तँऽ इएह एक छै, नियम सनातन ।
सरल सोझ केर एहिठाँ नञि छै, जीवन-यापन ।
जञो रहितए तँऽ, पृथिवी गोल किए कऽ रहितै ?
एकर सतह, पर्बत – पहाड़ - घाटी नञि रहितै ।
नदी असंख्य, धरती
पर सदिखन सोझेँ बहितै ।
चक्रबात - बिर्रो आ बबण्डर सेहो ने
अबितै ।
आब सोचै छी, हमहूँ वक्रेँ भ्रमण करी ।
जएह रूचए दुनिञाकेँ, तहिना रमण
करी ।।
दुर्लभ चीजक दुनिञामे छै - मोल
बहूते ।
सर्वसुलभ धूरा फाँकए, नञि पूछए लोके ।
सर्वसुलभ छी हवा - पानि,
सोचल की अपने ?
हीरक मोल - अमोल भेल, नञि
भेटए जखने ।
हीरा सेहो जञो सपाट, होइए कम दामक ।
गेल तरासल, कुटिल भेल, बूझू बड़ काजक ।
दुनिञामे जिउबा केर इच्छा वरण करी ।
दुनिञादारी सीखी, तकरेँ नमण करी ।।
वक्र सुलभ, पर सोझ बाट भेटए ने तकने ।
सोझेँ भेल विशेष, जखन दुर्लभ छी तखने ।
मुदा सोझ केर जिनगी संकटसँ छी भरले ।
सोझ बाँस कटि गेल, टेढ़ एखनो छै लगले ।
दुनिञा सोझक लेल कहाँ कहियो रहलैए ।
सोझ - सरल अनुशासित, से गदहा कहबैए ।
सोझ जौड़केँ गीरह दऽ लगबै सभ ओझड़ी ।
तहिना सोझ मोनमे सेहो
लागल घुरछी ।
असमञ्जसमे मोन, सोचए
की एखन करी ।
सोझ चली कि वक्र, ककर
अनुसरण करी ।।
मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका “विदेह” केर 193म अंक
(01
जनबरी 2016)
(वर्ष 9, मास 97, अंक 193) मे प्रकाशित ।
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