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Monday, 25 January 2016

पद्य - ‍१३९ - सोझ बाट (कविता)

सोझ बाट (कविता)






सोचलहुँ  बाट ई सोझ,  एकर  अनुसरण  करी ।
कुटिल वक्र तजि,  सरल सोझ केर  वरण करी ।।


पर  दुनिञामे  सोझ कहाँ,   कत्तहु  धरती  छै ।
बिनु किछु उगने  साफ कहाँ,  रहइछ पड़ती छै ।
पड़ती  जञो  छोड़ल, तँऽ  उपजै,  काँटे  अगबे ।
सरल सोझ आ स्वच्छ सुगम  अछि बाटे कतबे ।
जतेक दूर दुर्गम अगम्य,  अछि से  अतिपावन ।
जतेक विलक्षण विश्मयकारी,   ततेक सोहाओन ।
अखड़ल    जकरा,    कहलक,    बाटेँ   हवन   करी ।
अति विशिष्ट लए, ओहि कातेँ अहँ गमण करी ।।


एहि सृष्टिक तँऽ इएह एक छै, नियम सनातन ।
सरल सोझ केर  एहिठाँ नञि छै,  जीवन-यापन ।
जञो रहितए तँऽ, पृथिवी गोल किए कऽ रहितै ?
एकर सतह,  पर्बत पहाड़ - घाटी नञि रहितै ।
नदी असंख्य,  धरती पर सदिखन सोझेँ बहितै ।
चक्रबात - बिर्रो आ बबण्डर  सेहो  ने  अबितै ।
आब  सोचै  छी,   हमहूँ  वक्रेँ  भ्रमण  करी ।
जएह  रूचए  दुनिञाकेँ,  तहिना  रमण करी ।।


दुर्लभ  चीजक  दुनिञामे  छै  - मोल  बहूते ।
सर्वसुलभ  धूरा  फाँकए,  नञि  पूछए  लोके ।
सर्वसुलभ छी हवा - पानि,  सोचल की अपने ?
हीरक मोल - अमोल भेल,  नञि भेटए जखने ।
हीरा  सेहो  जञो  सपाट,   होइए  कम   दामक ।
गेल  तरासल,  कुटिल  भेल,  बूझू बड़ काजक ।
दुनिञामे   जिउबा   केर  इच्छा   वरण  करी ।
दुनिञादारी  सीखी, तकरेँ  नमण करी ।।


वक्र सुलभ,  पर सोझ बाट  भेटए ने तकने ।
सोझेँ भेल विशेष,  जखन दुर्लभ छी  तखने ।
मुदा सोझ केर  जिनगी  संकटसँ  छी भरले ।
सोझ बाँस कटि गेल, टेढ़ एखनो छै लगले ।
दुनिञा  सोझक  लेल  कहाँ  कहियो  रहलैए ।
सोझ - सरल अनुशासित, से गदहा कहबैए ।
सोझ जौड़केँ गीरह दऽ  लगबै सभ ओझड़ी ।
तहिना  सोझ मोनमे सेहो  लागल  घुरछी ।
असमञ्जसमे मोन,  सोचए की एखन करी ।
सोझ चली कि वक्र, ककर अनुसरण करी ।।



मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका विदेह केर ‍193म अंक (‍01 जनबरी 2016) (वर्ष 9, मास 97, अंक ‍193) मे प्रकाशित ।




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