पूणा – प्रवास (२)
(कविता)
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।
बिनु कहने, चुप रहि ने सकै छी ।
की पूणे नगरी छी रे भैय्या,
दूरहि देखि कऽ कहि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
देव मानि, आदर्श बुझै छी ।
जकरा हम सब नित्य पुजै छी ।
इन्द्रक कृत्य कतोक देवमय,
निज जीनगी अनुसरि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
भोरक सूर्य - शान्त ओ सुन्नर ।
दूरहि, चान - तरेगन सुन्नर ।
लऽग सँ कक्कर दृश्य केहेन की,
कोना कहू, किछु कहि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
पूणे - नगरी, विद्या केर नगरी ।
बहुत पैघ बान्हल तेँ पगरी ।
नहि फूसि एकहु आखर एहि मे,
ओहो विद्या , जे ने वरणि सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
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