( वि दे ह - प्रथम मैथिली पाक्षिक ई - पत्रिका (ISSN 2229-547X VIDEHA) , अंक - ९३ (नवम्बर - २०११) सँ साभार )
सुनू यौ भारत केर सरकार !
(आह्वान गीत)
(आह्वान गीत)
सुनू यौ भारत केर सरकार !
सुनू यौ भारत केर सरकार !
नञि माँगय छी भीख हऽम, निज माँगै छी अधिकार ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
जाहि धरती पर जन्म लेलहुँ हम,
जाहि धरती पर खेल केलहुँ ।
पीबि जकर हम अमिय सलिल नित,
अन्न खाय प्रतिपाल भेलहुँ ।
माँगि रहल छी, माए मैथिलीक पावन निर्मल प्यार ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
जन्महि सँ सिखलहुँ जे बाजब,
जाहि भाषा सँ दुनिञा जनलहुँ ।
जकर ज्ञान - गंगा मे नहा हम ,
वाणी रुपी रुपी रत्न केँ पओलहुँ ।
माँगि रहल छी, ओहि भाषा मे भाव – ज्ञान सञ्चार ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
किन्नहु आब ने रहतीह मैथिली,
ककरहु चरणक दासी ।
लेब अपन अधिकार ,
रहब हम लऽ कऽ अप्पन थाती ।
शान्ति समाहित क्रान्ति ज्वाल सँ, दूर करब अन्हार ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
लेब अपन अधिकार, मैथिलक
स्वाभिमान अछि जागि उठल ।
निज समृद्धि, उन्नति, विकाश केर,
नूतन पथ अछि बना रहल ।
आब ने रहतीह मिथिला - शिथिला, ने सहतीह अत्याचार ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
रोकि सकैछ ने केओ आइ,
कोशी कमलाक उमड़ल धारा ।
बान्हि सकैछ की केओ हवा,
पहिरा सकइछ ओकरा काड़ा ?
देब जवाब डूबा ओकरा , जे रोकत निज करुआरि ।
सुनू यौ भारत केर सरकार !
नोर (कविता)
रे नोर धन्य जिनगी तोहर,
निज प्रियाक नैन मे बसइत छेँ ।
बहि नैन सँ छूबि कपोल दुहु,
मधुकोष अधर मे खसइत छेँ ।।
पी अधर अमिय तोँ भऽ चञ्चल,
मुख चूमि वेग सँ बढ़इत छेँ ।
पुनि चूमि प्रियाक मृणाल गृवा,
कुच श्रृंग मध्य भऽ बहइत छेँ ।।
तोँ केलि करैत, अठखेलि करैत,
नाभी जल पूरित करइत छेँ ।
पुनि धार अनेक बना कटि पर,
चुम्बन कऽ आगाँ बढ़इत छेँ ।।
नीबी नभ तर भऽ हर्ष चित्त,
सागर सँ संगम करइत छेँ ।
ओहि अनुपम अर्णव तट पहुँचि,
अपना केँ धन्य तोँ बुझइत छेँ ।।
पर व्यर्थ तोहर अभिमान सर्व,
हमरहि कारण तोँ बहइत छेँ ।
नहि मोल तोहर रे अश्रु कोनहु,
बहबाक हेतुअहि बनइत छेँ ।।
हमहीं छी हुनक चितवन मे सदा,
यद्यपि तोँ आँखि मे रहइत छेँ ।
हम हुनक हृदय, हर अंग मे छी,
स्पर्श मात्र तोँ करइत छेँ ।।
हम जीवन नेने अबइत छी,
तोँ मरणक राह देखबइत छेँ ।
हमरा लग हर्षक द्युति - इजोत,
तोँ तम विषाद लऽ अबइत छेँ ।।
हम कनितहु, कानि ने सकइत छी
(गीत)
की हाल कहू, हम अहँ सँ प्रिय,
सब हाल तऽ अपने जनितहि छी ।
हम एहि ठाँ दूर, अहाँ सँ प्रिय,
चुप रहितहुँ सदिखन, कनितहि छी ।।
हर एक क्षण अहाँ हमर सन्मुख,
हम याद अहीं केँ करइत छी ।
अछि भेल जेना निन्नहु उन्मुख,
भरि राति तरेगन गनइत छी ।।
चन्ना मे देखि अहँक मुख छवि,
जँ धीर कने हम धरइत छी ।
तऽ देखि कलंक, प्रिय अहँ केँ,
चानहु बुझबा सँ डरइत छी ।।
हे प्राण हमर ! अहँ जुनि पुछू,
हम अहँ बिनु कोना कऽ रहइत छी ।
संदेह करब अहँ जुनि कनिञो,
हम अहीँ केर पूजा करइत छी ।।
सौभाग्य जे प्रिय अहँ नाड़ि थिकहुँ,
नोरहु केर भाषा जनइत छी ।
पर हमर विवशता तऽ देखू,
हम कनितहु, कानि ने सकइत छी ।।
ओ व्यक्ति की ?
(बालगीत)
(बालगीत)
ओ नाविकहि की ? जे ने झंझावात सञो खेलल । (ई चित्र मात्र भाव दर्शनार्थ गूगल इमेज़ सर्च सँ लेल गेल अछि) |
ओ व्यक्ति की ? जे नहि समय केर मारि सहने हो ।
ओ हृदय की ? जे ने दुःखक कोनो स्वाद चिखने हो ।।
ओ सैनिकहि की ? युद्ध मे जे भाग नञि लेलक ।
ओ नाविकहि की ? जे ने झंझावात सञो खेलल ।
ओ सोन की ? जे आगि केर नञि धाह सहने हो ।
ओ व्यक्ति की ? जे नहि समय केर मारि सहने हो ।।
तरुआरि की ? जे शत्रु केर शोणित सँ नञि भीजल ।
ओ आँखि की ? जे नोर सन अमृत सँ नञि तीतल ।
संजोगे की ? जे नञि वियोगक राति सहने हो ।
ओ व्यक्ति की ? जे नहि समय केर मारि सहने हो ।।
ओ की पथिक ? जे काँट पर चलनाय नहि सीखल ।
ओ की सरित ? जे पर्वतहुँ मे धार नहि चीड़ल ।
ओ वयस की ? जे नञि जगक अनुभव समेटने हो ।
ओ व्यक्ति की ? जे नहि समय केर मारि सहने हो ।।
ओ गाछ की ? सदिखन लसित वसन्त जे देखल ।
ओ विजय की ? जे विघ्न – बाधा केर विना भेटल ।
ओ दीप की ? जे वायु केर नञि कम्प सहने हो ।
ओ व्यक्ति की ? जे नहि समय केर मारि सहने हो ।।
पूणा – प्रवास (१)
(कविता)
मिथिलाक माटि सँ दूर एतए,
यौ अहाँ पुछै छी केहेन लगैए ।
त्वरित वेग, पर एकरस जिनगी,
पुरिबा – पछिबा बुझि ने पड़ैए ।।
की बसन्त – बरसात – घाम,
सभ एक्कहि रंग मधुमास लगैए ।
की आयल, की गेल, से नञि कहि,
शरद – शिशिर – हेमन्त बितैए ।।
सौ - सौ उर्वशि - रति - मेनका,
आँखिक सोझाँ सदा रहैए ।
रुचिर प्रकृति - मनोहर - सुन्नर,
नन्दन - वन सन रोज हँसैए ।।
मुदा तदपि नञि जानि एतऽ किए,
हमर मोन, मिसियो ने लगैए ।
ओ मिथिला – भू याद आबैतछि,
मिथिला – भाषा कहाँ भेटैए ??
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
पूणा – प्रवास (२)
(कविता)
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।
बिनु कहने, चुप रहि ने सकै छी ।
की पूणे नगरी छी रे भैय्या,
दूरहि देखि कऽ कहि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
देव मानि, आदर्श बुझै छी ।
जकरा हम सब नित्य पुजै छी ।
इन्द्रक कृत्य कतोक देवमय,
निज जीनगी अनुसरि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
भोरक सूर्य - शान्त ओ सुन्नर ।
दूरहि, चान - तरेगन सुन्नर ।
लऽग सँ कक्कर दृश्य केहेन की,
कोना कहू, किछु कहि ने सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
पूणे - नगरी, विद्या केर नगरी ।
बहुत पैघ बान्हल तेँ पगरी ।
नहि फूसि एकहु आखर एहि मे,
ओहो विद्या , जे ने वरणि सकै छी ।
जे देखल, से कहि ने सकै छी ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
चकोरक उक्ति चानक प्रति
(कविता)
हे चान ! अहाँ धन्य छी ।
हमर मृत्यु पर प्रशन्न छी ।
अहँक हृदयहीनता सँ, हऽम अवसन्न छी ।
हे चान ! अहाँ धन्य छी ।।
जिनगी भरि रटलहुँ हम, अऽहीं केर नाम ।
मनमे अऽहींक छवि, बसल अभिराम ।
की हम कहू , अहाँ पाथर अनमन्न छी ।
हे चान ! अहाँ धन्य छी ।।
अहीं हमर इच्छा, अहीं हमर काम ।
अहीं हमर काया, अहीं हमर प्राण ।
हम तऽ अहाँक, छद्म रूप देखि सन्न छी ।
हे चान ! अहाँ धन्य छी ।।
अहीं केर वियोगेँ, हम त्यागै छी प्राण ।
अहँक ठोर निष्ठुर, छिड़ियाबै मुस्कान ।
सोचि रहल छी, अपनेँ पाथर प्रणम्य छी ।
हे चान ! अहाँ धन्य छी ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
अहाँ सपनहि मे आबै छी, आयल करू
(गज़ल)
अहाँ सपनहि मे आबै छी, आयल करू ।
मोन सपनहि मे क्षणिकहु, जुड़ायल करू ।।
हम चाही ने आओर किछु, अहँ सँ प्रिय ।
अहँ बनि कऽ गुलाब, मुस्किआयल करू ।।
पाबि सकलहुँ ने अहँ केँ जदपि हम प्रिय ।
अहँ ओहिना, कौमुदि केँ लजायल करू ।।
अहँ दूरहि रही, अहाँ अनकहि सही ।
दीप प्रेमक हमेशा, जड़ायल करू ।।
प्रेम प्रेमहि रहत , ओ मेटा ने सकत ।
अहँ चाही तऽ सपनहु ने आयल करू ।।
प्रेम मोनक मिलन, नहि कामक सदन ।
अहँ जाहि ठाँ छी,ओहि ठाँ फुलायल करू ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
हम फूल बनब, हम काँट बनब
(बालगीत)
हम फूल बनब, हम काँट बनब ।
कोमलतम्, टाँट सँ टाँट बनब ।।
नहि ककरहु हम, अधिकार हरब ।
नहि ककरहु हम पथविघ्न बनब ।
पर अपन प्रगति - पथ - रोड़ा लेऽ
हम लोहक दण्ड समाठ बनब ।।
पानिक संग बनि कऽ माछ रहब ।
शत्रु लेऽ विषधर साँप बनब ।
सज्जन लेऽ शिव अभिराम सही,
दुर्जन लेऽ हर विकराल बनब ।।
मिथिला केर पारावार हमर ।
मिथिला भाषा अधिकार हमर ।
अछि तुच्छ एतए, संसार सगर ।
मिथिला भाषा सभसँ मीठगर ।
आँखि उठाओत जे एकरा दिशि,
तकरा लेऽ चूल्हिक आँच बनब ।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९४, दिनांक - १५ नवम्बर २०११, “बालानां कृते” मे प्रकाशित ।
किए हँसबै छऽ मिथिला केर नाम भैय्या ?
(गीत)
होइ छऽ मिथिला केर कण कण निलाम भैय्या ।
कोना तोँ सभ करै छऽ अराम भैय्या ??
धरती ई जनकक आइ आहत पड़ल छऽ ।
तोरहि सभ केर बाट तकै छऽ ।
कोना बैसल छऽ मूनि आँखि कान भैय्या ?
कोना तोँ सभ करै छऽ अराम भैय्या ??
मिथिला केर माटि केर बोली लगै छऽ ।
खरिहानहि पैसि, दुष्ट गोली दगै छऽ ।
हृदय मैथिलीक भेलह लहु – लुहान भैय्या ।
कोना तोँ सभ करै छऽ अराम भैय्या ??
मिथिलाऽक नाँव बेचि गद्दी चढ़ै छऽ ।
पाछाँ सऽ एकरहि गर्दनि कटै छऽ ।
कतऽ गेलह तोऽहर ओ शान भैय्या ?
कोना तोँ सभ करै छऽ अराम भैय्या ??
छीः छीः तोरा की लाजो ने होइ छऽ ।
कुक्कुर जेकाँ अँइठ पातो चटै छऽ ।
किए हँसबै छऽ मिथिलाक नाम भैय्या ?
कोना तोँ सभ करै छऽ अराम भैय्या ??
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४८, अंक – ९५, दिनांक - १ दिसम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
ककरा दृष्टि मे नीक, के कह ?
(कविता)
तन सुन्नरि हम देखि रहल छी,
मन सुन्नर - से कोना कहू ।
तन केर सुन्नरता घातक थिक,
जँ सुन्नर मन केर बिना रहू ।।
अहँ सुन्नरि छी, बड़ सुन्नरि छी,
चर्चा पसरल सौंसे जग मे ।
पर सुन्नरता की थिक - के कह ?
के एकरा फरिछाओत जग मे ??
नञि ठोस तरल वा गैस ई थिक,
हो मानक परिभाषा जकरा ।
ककरा दृष्टि मे नीक के कह ?
थिक कक्कर अभिलाषा ककरा ।।
तन केर सुन्नरता चञ्चल थिक,
मन केर सुन्नरता रहए थीर ।
मन सिन्धु समान अथाह, स्वच्छ,
तन बरसाती धाराक नीर ।।
तन भ्रामक थिक, तन नश्वर थिक,
नहि प्रेमक थिक ओ परिचायक ।
नञि तऽ, श्रीकृष्णक की हस्ती ,
जे बनितथि ओ सभहक नायक ।।
सुनइत छी लैला कारी छलि,
कोयली कारी से जनितहि छी ।
आँखिक पुतरी होइत’छि कारी,
गुन एकर विश्व भरि मनितहि छी ।।
हो तन सुन्नर, हो मन सुन्नर,
तऽ एहि सँ बढ़ि कऽ की होयत ?
नहि चरम मेल दुहु केर सम्भव,
जँ होयत, तऽ बढ़ि की होयत ??
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४८, अंक – ९५, दिनांक - १ दिसम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
की इएह कहाबैछ सुन्नरता ??
(कविता)
तन गोर, नयन हिरणी सनि हो,
हो अंग अंग मे चञ्चलता ।
दुहु ठोर पात तिलकोरहि सनि,
पातर कटि मे हो लोचकता ।।
हो पीनि पयोधर शिरिफल सनि,
मुस्कान भरल हो मादकता ।
दाड़िम दाना सनि दाँत जकर,
हो केश मे मेघक पाण्डरता ।।
हर अलंकरण सज्जित तन पर,
हर चालि - चलन मे अल्हरता ।
की एतबहि सँ ओ सुन्नर अछि ?
की इएह कहाबैछ सुन्नरता ??
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४८, अंक – ९५, दिनांक - १ दिसम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
मातृ – भू वन्दना
(बालगीत)
सिता१ मधुरम्३, मधुरपि२ मधुरम्३,
मधुरादपि मधु माएक भाषा ।
संस्कृत प्रिय, हिन्दी प्रियतर,
दुहु सँ बढ़ि कऽ मिथिलाभाषा ।।
धरती सुन्नर, भारत सुन्नर,
पर सुन्नरतम मिथिलाबासा ।
जिनगी हो समर्पित एकरहि लए,
अछि मात्र इएह टा अभिलाषा ।।
मिट जाय भलहि, नञि हिय हारी,
सम विषम, माए अहीं केर आशा ।
रहए ध्यान सतत् अहँ चरणहि मे,
हो हरेक जन्म मिथिलाबासा ।।
१ सिता = चिन्नी वा मिश्री
२ मधुर / मधूर = मिठाई
३ मधुर = मीठ
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४८, अंक – ९५, दिनांक - १ दिसम्बर २०११, “बालानां कृते” मे प्रकाशित ।
[ उपरोक्त सभ रचनाक प्रकाशन हेतु हम सम्पादक श्री गजेन्द्र ठाकुरजी आ समस्त विदेह परिवारक आभारी छी ]
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