नोर (कविता)
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४, मास – ४७, अंक – ९३, दिनांक - १ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।
रे नोर धन्य जिनगी तोहर,
निज प्रियाक नैन मे बसइत छेँ ।
बहि नैन सँ छूबि कपोल दुहु,
मधुकोष अधर मे खसइत छेँ ।।
पी अधर अमिय तोँ भऽ चञ्चल,
मुख चूमि वेग सँ बढ़इत छेँ ।
पुनि चूमि प्रियाक मृणाल गृवा,
कुच श्रृंग मध्य भऽ बहइत छेँ ।।
तोँ केलि करैत, अठखेलि करैत,
नाभी जल पूरित करइत छेँ ।
पुनि धार अनेक बना कटि पर,
चुम्बन कऽ आगाँ बढ़इत छेँ ।।
नीबी नभ तर भऽ हर्ष चित्त,
सागर सँ संगम करइत छेँ ।
ओहि अनुपम अर्णव तट पहुँचि,
अपना केँ धन्य तोँ बुझइत छेँ ।।
पर व्यर्थ तोहर अभिमान सर्व,
हमरहि कारण तोँ बहइत छेँ ।
नहि मोल तोहर रे अश्रु कोनहु,
बहबाक हेतुअहि बनइत छेँ ।।
हमहीं छी हुनक चितवन मे सदा,
यद्यपि तोँ आँखि मे रहइत छेँ ।
हम हुनक हृदय, हर अंग मे छी,
स्पर्श मात्र तोँ करइत छेँ ।।
हम जीवन नेने अबइत छी,
तोँ मरणक राह देखबइत छेँ ।
हमरा लग हर्षक द्युति - इजोत,
तोँ तम विषाद लऽ अबइत छेँ ।।
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