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Tuesday, 15 December 2015

पद्य - ‍१‍३‍१ - लेखकक जिनगीक छन्द (कविता)



लेखकक जिनगीक छन्द
(कविता)



गीत  कविता   निबन्ध ।
गजल खिस्सा   प्रबन्ध ।
लेखनीकेँ  लोक  बूझए, लेखकक  जिनगक  छन्द ।।

बात  तँऽ  किछु  सत्य सेहो,
बात  किछु  फूसियो रहै छै ।
बात  किछु   अपना  मनक,
किछु आन केर सेहो कहै छै ।
बात किछु  अनुभव आधारित,
आन  किछु   देखल−सुनल ।
बात  किछु  सहमति  मनक,
आ बात किछु जे नञि पटल ।
तेँ कोनहु साहित्यकारक,  लेखनी−जिनगी  स्वतन्त्र ।
लेखनीकेँ जुनि बूझू अहँ,  लेखकक जिनगीक छन्द ।।

लेखनी  नञि  बान्ह  मानए,
की  परक   की  अपन ।
लेखनी  नञि   भेद   बूझए,
की  यथार्थ   की सपन ।
लेखनी  हर   आढ़ि   धाँगए,
की सुखक   की दुःखक ।
लेखनी   तँऽ  सेन्ह   मारए,
आन    अप्पन  मनक ।
तेँ कोनहु लेखक केर जिनगीक,  लेखनी ने छी कलण ।
किछु तँऽ हुनि जिनगीक दर्पण, शेष स्वच्छन्दे फलन ।।

अंगूर  केर  दाना  सुकोमल,
कोमलहि   देखबामे   छी ।
नारिकेरक    भीतरी    
बाहरीक  तुलना   ने  छी ।
तेँ   कोनहु   लेखक   केर,
जीवनवृत्तमे से ध्यान राखी ।
लेखनीमे   दर्प   जिनगीक,
अछि कतेक अनुमान राखी ।
सएसँ  शुन्ना   धरिक  प्रतिशत,  केर  रहैछ  सम्बन्ध ।
आन  साक्ष्यक  ली  सहारा,  बूझि पड़ए जँ द्वन्द्व ।।

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