लेखकक
जिनगीक छन्द
(कविता)
गीत कविता ओ निबन्ध
।
गजल खिस्सा ओ प्रबन्ध ।
लेखनीकेँ लोक
बूझए, लेखकक जिनगक छन्द ।।
बात तँऽ
किछु सत्य सेहो,
बात किछु
फूसियो रहै छै ।
बात किछु
अपना मनक,
किछु आन केर सेहो
कहै छै ।
बात किछु अनुभव आधारित,
आन किछु देखल−सुनल
।
बात किछु सहमति मनक,
आ बात किछु जे
नञि पटल ।
तेँ कोनहु
साहित्यकारक, लेखनी−जिनगी स्वतन्त्र ।
लेखनीकेँ जुनि
बूझू अहँ, लेखकक जिनगीक छन्द ।।
लेखनी नञि बान्ह
मानए,
की परक आ की अपन
।
लेखनी नञि भेद बूझए,
की यथार्थ आ
की सपन ।
लेखनी हर आढ़ि धाँगए,
की सुखक आ की
दुःखक ।
लेखनी तँऽ सेन्ह मारए,
आन आ अप्पन
मनक ।
तेँ कोनहु लेखक
केर जिनगीक, लेखनी ने छी कलण ।
किछु तँऽ हुनि
जिनगीक दर्पण, शेष स्वच्छन्दे फलन ।।
अंगूर केर दाना
सुकोमल,
कोमलहि देखबामे छी ।
नारिकेरक भीतरी ओ
बाहरीक तुलना ने छी ।
तेँ कोनहु लेखक केर,
जीवनवृत्तमे से
ध्यान राखी ।
लेखनीमे दर्प जिनगीक,
अछि कतेक अनुमान
राखी ।
सएसँ शुन्ना धरिक प्रतिशत, केर रहैछ सम्बन्ध ।
आन साक्ष्यक ली सहारा, बूझि
पड़ए जँ द्वन्द्व ।।
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