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मिथिलाक पर्यायी नाँवसभ

मिथिलाभाषाक (मैथिलीक) बोलीसभ

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Thursday, 1 September 2011

"वि दे ह" - प्रथम मैथिली पाक्षिक ई - पत्रिका मे प्रकाशित हमर किछु गीत व आन पद्य रचना, भाग - ‍१

( वि दे ह - प्रथम मैथिली पाक्षिक ई - पत्रिका (ISSN 2229-547X VIDEHA) , अंक - ८८, ८९, ९०  (अगस्त - सितम्बर २०‍१‍१)  सँ साभार )

                             मेघ

हम मेघ थिकहुँ  धरतीवासी, ई जीवन हमरहि आनल अछि ।
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नञि दोष हमर जँ हो अनिष्ट, आ नाचथि ताण्डव महाकाल ।।
(छायाकार :- डॉ॰ शशिधर कुमर)
 
म मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई  जीवन  हमरहि आनल  अछि ।
नञि गोर जदपि हम छी कारी, पर स्नेह सुधा संग आनल अछि ।।

जखन – जखन  एहि भूतल पर,
रविकिरणक साहस  बढ़ैत गेल ।
सभ जीव जन्तु , गाछी  बिरछी,
जल विन्दु-विन्दु ले तरसि गेल ।
एहि दारुण दुःख मे संग तोहर, हर बेर हृदय मोर कानल अछि ।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई  जीवन हमरहि  आनल अछि ।।

हर आह  हमर  शीतल बसात,
नोरक हर बुन्न  बनल अमृत।
लहलहा  उठल खेतक  जजाति,
हर जीव  तृप्त,  धरती संसृत ।
स्वागत मे सदिखन आदिकाल सँ मोर मुदित मन नाचल अछि ।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई  जीवन हमरहि  आनल अछि ।।

हर सड़सि  ताल सरिता निर्झर,
वन उपवन हमरहि सँ शोभित ।
हर जड़ि चेतन केर प्राण हमहि,
छी रग मे हमहीं बनि शोणित ।
हमरहि निर्मित ई सकल स्वर्ग , हमरहि वसन्त ई आनल अछि ।
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी ! ई  जीवन हमरहि  आनल अछि ।।

नञि दोष हमर, जँ हो अनिष्‍ट,
आ नाचथि ताण्डव  महाकाल ।
जलमग्न धरा,  बाढ़िक  कारण,
आ देखि पड़य  कत्तहु अकाल ।
सोचू एहि मे अछि दोष ककर ? की नियम अहाँ सभ मानल अछि ?
हम मेघ थिकहुँ, धरतीवासी !  ई  जीवन   हमरहि  आनल अछि ।।

विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४४, अंक ८८, ‍दिनांक - १५ अगस्त २०११ मे प्रकाशित ।


                                  
 हम मैथिल ! मिथिला केर सन्तान 






की होयत सोचि भविष्य विषय, हम तऽ अतीत केर करी गान ।
म मैथिल !  मिथिला केर सन्तान ।
नञि  दुनिञा  केर  कनिञो  ध्यान ।
की होयत सोचि  भविष्य विषय,  हम तऽ अतीत  केर करी गान ।
                        हम  मैथिल ! मिथिला केर सन्तान ।।

नञि  दुनिञा  सँ, कनिञो घबड़ायब ।
नञि प्रगति देखि कऽ हम ललचायब ।
छल  हमर  अतीत   बहुत   सुन्नर,
तेँ   रहत   भविष्यहु  नीक  हमर ।
की अजगर  करइत अछि चिन्ता ? अरे  सबहक दाता , अपनहि राम ।
                            हम  मैथिल ! मिथिला केर सन्तान ।।

विज्ञानक द्वारि,  अशान्तिक द्वारि ।
एहि  सँ  नीक,  बैसी   चौपाड़ि
करी   अराड़ि  आ  पढ़ी   गारि ।
नञि  ताहि  सँ जीती, करी मारि ।
अछि  फॉर्मूला - परिभाषा  व्यर्थ ।
चान – विजय  अभिलाषा  व्यर्थ ।
की धरती’क चान  अलोपित अछि , जे करी गगन  चानक अभियान ?
                           हम  मैथिल ! मिथिला केर सन्तान ।।

हम  मानि लेल  अहँ  सर्वश्रेष्ठ ।
लाठी  भाँजए  मे  छी  यथेष्ठ ।
अहँ  शूरवीर,  अहँ  परम वीर ।
अहँ   कर्मवीर,  अहँ  धर्मवीर ।
अहँ माए  मैथिलीक पुत्र  धीर,  जे सहि सकलहुँ  माएक अपमान ।
                         अहँ मैथिल , मिथिला केर सन्तान ।।

विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४४, अंक ८८, ‍दिनांक - १५ अगस्त २०११ मे प्रकाशित । 




      बरसातक एक राति





  बहय माटि – पानि दुहु एक साथ ।
(छायाकार :- डॉ॰ शशिधर कुमर)


सित  अन्हार  डेराओनि  राति ।
                             झमकि झमकि बरिसय  बरसात ।।

अछि अस्त सूर्य आ धुमिल चान ।
घूमय नभ मे  चहुदिशि  जलधर ।
करय गरजि गरजि कऽ मेघ नाद ।
रहि रहि चमकए  चपला चञ्चल ।
बहए सुरभित शीतल रम्य बसात ।
                            झमकि झमकि बरिसय  बरसात ।।

प्रेमीक विछोह,  प्रेमिकाक  क्षोभ ।
मयूरक खुशी  अह्वलादित  नर्तन ।
गर्मी  सँ त्रस्त – पाओल  राहत ।
करय  जीव पावसक अभिनन्दन ।
पाओल राहत सभ कृषक समाज ।
                            झमकि झमकि बरिसय  बरसात ।।

उमड़ल पोखड़ि, नदी, ताल,सड़सि ।
हर्षित ओ जन्तु जे जल सञ्चारी ।
करए  दादुर, जोंक, साँप, सहसह ।
पसरल  सौंसे  धरती  पर चाली ।
बहए माटि – पानि दुहु एक साथ ।
                            झमकि झमकि बरिसय  बरसात ।।

पावस    राति - ई   कारी   घोर ।
पुरिबा – पछबा    से    बड़   जोड़ ।
भेल   भोर,   पर   रौद   मलीन ।
सूर्य  जेना  निज   शक्ति  विहीन ।
कहुँ – कहुँ  हंसक   उनमुक्त पसार ।
                           झमकि झमकि बरिसय  बरसात ।।
भेल   भोर,   पर   रौद   मलीन ।
सूर्य  जेना  निज  शक्ति   विहीन ।
कहुँ – कहुँ  हंसक  उनमुक्त पसार ।

"विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ८९, दिनांक – ०१।०९।२०११ मे प्रकाशित । 



 नभ श्याम,  धरा श्याम,  सभ श्यामल श्यामल

    नभ श्याम, धरा श्याम, सभ श्यामल - श्यामल  
         आइ  लगइछ  प्रकृति श्याम  रंग  मे  रँगल ।।
(छायाकार :- डॉ॰ शशिधर कुमर)
भ श्याम, धरा श्याम, सभ श्यामल  श्यामल ।
आइ  लगइ’छ  प्रकृति  श्याम  रंग  मे  रँगल ।।

सुनि   मुरलीक  तान ।
एलीह राधा ओहि ठाम ।
प्रीति  सरिता  मे  डूबि,  भेलीह  राधहु श्यामल ।
आइ  लगइ’छ  प्रकृति  श्याम  रंग  मे  रँगल ।।

श्याम  श्यामक शरीर ।
श्याम यमुनाक  नीर ।
पहीरि साँझक कलेवर , भेलीह  वसुधहु  श्यामल ।
आइ  लगइ’छ  प्रकृति  श्याम  रंग  मे  रँगल ।।

छवि सुन्नर  सहज ।
मूँह  रक्तिम जलज ।
रक्त कंज  बीच खिलल  युगल  श्यामल  कमल ।
आइ  लगइ’छ  प्रकृति  श्याम  रंग  मे  रँगल ।।

श्याम अलकक  कुञ्ज ।
जेना भ्रमरक हो पुञ्ज ।
भासि राहु कोर,  चान  सेहो  श्यामल  श्यामल ।
आइ  लगइ’छ  प्रकृति  श्याम  रंग  मे  रँगल ।।

घीरि आयल  पयोद ।
देखू नचइ’छ कामोद ।
छूबि श्याम, श्याम, श्याम भेल अनिलहु श्यामल ।
नभ श्याम,  धरा श्याम,  सभ श्यामल श्यामल ।।

"विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ८९, दिनांक – ०१।०९।२०११ मे प्रकाशित । 


  आयल साओन मास सोहाओन

    लागय आजु धरा मनभाओन, कि चलु सखि, चऽलू ने सखी ।
(छायाकार :- डॉ॰ शशिधर कुमर)
यल साओन मास सोहाओन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।
लागय आजु  धरा मनभाओन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।।

छल छल बहइ’छ श्यामा सरिता ।
भेल मलिन मुख देखि ई सविता ।
बहु विधि सजल धजल वृंदावन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।
आयल साओन मास सोहाओन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।।

मन्द पवन सखी वसन हिलावय ।
मन मानस  मोर मदन जगावय ।
बाजय छमकि छमकि पायलिया,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।
लागय आजु  धरा मनभाओन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।।

सभ सखि मीलि चलू रास रचायब ।
कदमक डाड़ि मे  हिरला  लगायब ।
बजओता माधव मधुर मुरलिया,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।
आयल साओन मास सोहाओन,
                         कि चलु सखी , चऽलू ने सखी ।।


विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ८९, दिनांक – ०१।०९।२०११ मे प्रकाशित । 




            बसात (हवा) 

नञि  मूर्त  रूप पओलक कहियो, पर  दिव्य शक्ति संवरने  अछि ।
(छायाकार :- डॉ॰ शशिधर कुमर)


शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।
स्पर्श मात्र कए सकइत छी , निज  आँखि  सँ देखब सपने अछि ।।

ब्रम्हा बनि कखनहु  सृजन  करय,
कहुखन हर  रूप  कराल  धरय ।
कहुखन   हरि  सम   पालनकर्त्ता,
कहुखन यम - सद्यः  काल बनय ।
ओ जिनगी छी  एहि  धरती  केर,
सभ जीवक साँस समाहित  अछि ।
एहि  धरती पर  जे  रिक्त  लगय,
ओहि शुन्यक बीच प्रवाहित अछि ।
नञि  मूर्त  रूप पओलक कहियो, पर  दिव्य शक्ति संवरने  अछि ।
ओ शिल्पकार छी  एहि  धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।।

ओ योगवाहि,  की नञि  बुझल ?
ओ  कऽ सकैछ  ककरो  संगति ।
जकरा संग,  जा धरि  मीत रहय,
तकरे  सन  गुण, तकरे  रंगति ।
के नञि  जनैछ  पुरिबा – पछिबा,
मलयक  बसात के नञि जनइछ ।
ककरा   नञि  अनुभव  चक्रवात,
लू – जेठक   दुपहरिया  तपइत ।
अनल,  अनिल  केर  संग  पाबि, सोनक लंका  केँ  डहने  अछि ।
ओ शिल्पकार छी  एहि  धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।।

कहुखन  एकसरि सरिता  जल  पर,
जनु   जलतरंग  ओ  बजा  रहल ।
कखनहु  मरु  मे  वा  सागर  तट,
लीखि  बालु सँ अपने  मेटा  रहल ।
ओकरा  सोझाँ,  के  रहल  अडिग,
बिनु  दर्प – दलित, के  रहल ठाढ़ ?
कत  विटप उखाड़ल, सिन्धु  मथित,
भासित   पहाड़,   अपचित  पठार ।
अगनित पाथर केँ काटि – छाँटि, कत रूप - अनूप ओ गढ़ने अछि ।
ओ शिल्पकार छी  एहि  धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।।


 विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ९०, ‍दिनांक - १५ सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।




      हे प्रिय ! अहँक सुन्नर मुखड़ा

हे प्रिय ! अहँक सुन्नर मुखड़ा,
                                                    गहुमक  रोटी  सन गोल गोल ।
ने रक्त अधिक, ने श्याम प्रबल,
                                                     गहुमहि सन सुन्नर गोड़ गोड़ ।।



अछि मोन लोभाइत देखि – देखि,
                          दू  टा  फाँरा आमक अचार ।
संगहि राखल  सुन्नर - सुन्नर,
                          मिरचाइक फर दू गोट लाल ।।



की काज अहाँ केँ एहि रोटीक,
                        दऽ दियऽ सखी हम भूखल छी ।
आपस कए जुनि सिर पाप धरू,
                       हम छी अतीथि हम भूखल छी ।।



 विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ९०, दिनांक - १५ सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।


 
     जे गाबि सकी, से गीत भेल (गजल)*
 
जे गाबि सकी,  से गीत भेल, की गजल - छन्द - कविता - मुक्तक ?
जँ  हो  जजाति,  तऽ खेत भेल,  की आढ़ि – धूर – हत्ता - टटहड़ि  ?? 

हम अंगहीन, कोनो अंग विना,  पर देह सिमित नञि,  अछि व्यापक ।
मुँह – नाक - कान आ पएर - हाथ,  छी हमरहि, पर ने हमर पड़तर ।।

कोँढ़ी  जँ  फुलायल,  फूल  बनल,   गेना – गुलाब – जूही - चम्पक ।
जे फड़य गाछ पर, फऽल कहल,  हो आम – लताम – लकुच – कटहड़ ।।

छी वारि एक,  पर  विविध रूप,  अछि जलधि धरा,  नभ मे जलधर ।
खन शान्त कूप – पोखड़ि – डबरा, खन चंचल सिन्धु – सरित – निर्झर ।।

कर  कलम  हाथ  लिखबाक लेल,  पर मोन पता  नञि  की लीखत ।
अहँ कहलहुँ “गजल”  लिखू - लिखलहुँ, पर गाबि सकब तेँ गीत कहब ।।

अहँ  “अनचिन्हार”,  परिचित भेलहुँ,  पर हम  “विदेह”  सौंसे सञ्चर ?
उन्मुक्त बसात - चिड़ै सन मन,  नहि गजल - गीत,  खिस्सो लीखत ।।

मैथिलीक प्रशिद्ध गजल रचयिता श्री आशीष "अनचिन्हार" जी


         *  वस्तुतः ई गजल नञि थिक, एकर शिर्षक (नाँव) थिक "गजल", अनचिन्हार जी केर आग्रह छलन्हि जे
                 गजल लीखू  - से गजल लीखि देल ।
  *श्री आशीष “अनचिन्हार” जी केर आग्रह पर तथा हुनिकहि समर्पित ।
  


विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ९०, दिनांक - १५ सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।




[ उपरोक्त सभ रचनाक प्रकाशन हेतु हम सम्पादक श्री गजेन्द्र ठाकुरजी आ समस्त विदेह परिवारक आभारी छी ]


                                  

2 comments:

  1. नीक संकलन अछि । शुभकामनानीक संकलन अछि । शुभकामना

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