जे गाबि सकी, से गीत भेल (गजल)*
जे गाबि सकी,  से गीत भेल, की गजल - छन्द - कविता - मुक्तक ?
जँ  हो  जजाति,  तऽ खेत भेल,  की आढ़ि – धूर – हत्ता - टटहड़ि  ??  
हम अंगहीन, कोनो अंग विना,  पर देह सिमित नञि,  अछि व्यापक । 
मुँह – नाक - कान आ पएर - हाथ,  छी हमरहि, पर ने हमर पड़तर ।। 
कोँढ़ी  जँ  फुलायल,  फूल  बनल,   गेना – गुलाब – जूही - चम्पक ।
जे फड़य गाछ पर, फऽल कहल,  हो आम – लताम – लकुच – कटहड़ ।।
छी वारि एक,  पर  विविध रूप,  अछि जलधि धरा,  नभ मे जलधर ।
खन शान्त कूप – पोखड़ि – डबरा, खन चंचल सिन्धु – सरित – निर्झर ।।
कर  कलम  हाथ  लिखबाक लेल,  पर मोन पता  नञि  की लीखत ।
अहँ कहलहुँ “गजल”  लिखू - लिखलहुँ, पर गाबि सकब तेँ गीत कहब ।।
अहँ  “अनचिन्हार”,  परिचित भेलहुँ,  पर हम  “विदेह”  सौंसे सञ्चर ?
उन्मुक्त बसात - चिड़ै सन मन,  नहि गजल - गीत,  खिस्सो लीखत ।।
|  | 
| मैथिलीक प्रशिद्ध गजलकार श्री आशीष "अनचिन्हार" जी | 
गजल लीखू - से गजल लीखि देल ।
  *श्री आशीष “अनचिन्हार” जी केर आग्रह पर तथा हुनिकहि समर्पित । 
“विदेह”  पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४ , मास – ४५ , अंक – ९०, दिनांक - १५ सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।
 



 
 
No comments:
Post a Comment