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Thursday, 15 September 2011

पद्य - ८ - जे गाबि सकी, से गीत भेल (गजल)

जे गाबि सकी, से गीत भेल (गजल)*





जे गाबि सकी,  से गीत भेल, की गजल - छन्द - कविता - मुक्तक ?
जँ  हो  जजाति,  तऽ खेत भेल,  की आढ़ि – धूर – हत्ता - टटहड़ि  ?? 

हम अंगहीन, कोनो अंग विना,  पर देह सिमित नञि,  अछि व्यापक ।
मुँह – नाक - कान आ पएर - हाथ,  छी हमरहि, पर ने हमर पड़तर ।।

कोँढ़ी  जँ  फुलायल,  फूल  बनल,   गेना – गुलाब – जूही - चम्पक ।
जे फड़य गाछ पर, फऽल कहल,  हो आम – लताम – लकुच – कटहड़ ।।

छी वारि एक,  पर  विविध रूप,  अछि जलधि धरा,  नभ मे जलधर ।
खन शान्त कूप – पोखड़ि – डबरा, खन चंचल सिन्धु – सरित – निर्झर ।।

कर  कलम  हाथ  लिखबाक लेल,  पर मोन पता  नञि  की लीखत ।
अहँ कहलहुँ “गजल”  लिखू - लिखलहुँ, पर गाबि सकब तेँ गीत कहब ।।

अहँ  “अनचिन्हार”,  परिचित भेलहुँ,  पर हम  “विदेह”  सौंसे सञ्चर ?
उन्मुक्त बसात - चिड़ै सन मन,  नहि गजल - गीत,  खिस्सो लीखत ।।


मैथिलीक प्रशिद्ध गजलकार श्री आशीष "अनचिन्हार" जी

         *  वस्तुतः ई गजल नञि थिक, एकर शिर्षक (नाँव) थिक "गजल", अनचिन्हार जी केर आग्रह छलन्हि जे
                 गजल लीखू  - से गजल लीखि देल ।
  *श्री आशीष “अनचिन्हार” जी केर आग्रह पर तथा हुनिकहि समर्पित ।
  


विदेह पाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४५ , अंक ९०, दिनांक - १५ सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।

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