खैनी
(कविता)
पहिलुक अलाप
खोआए देलक, हम खाइत कहाँ छी ।
बस चीखए छी, अभ्यस्त कहाँ छी ।
सबसबाइत छल दाँत,
तेँ धएलहुँ,
एतबामे किछु गलत
कहाँ छी ??
बिचला प्रलाप
एतेक बरख धरि केर
आदति छी ।
छूटत नञि,
छोड़ए चाहैत छी ।
ओ तँऽ कहियो
नहिञे खएलक,
तइयो काँकोड़ * केर आफत छी ।।
अन्तिम विलाप
हओ बौआ ! नहिञे
छुटलै ई ।
चचरी पर
संगहि जड़तै ई ।
जँऽ पहिने
से सब बुझितियै,
ठोर कहाँ
धरितहुँ हम खैनी !!
हम्मर सलाह
अस्सी चुटकी आ नब्बे ताल ।
ठोर पर खैनी करैछ
कमाल ।
गीत - गीत छै, बात ने मानू;
नञि तँऽ होयत जान - जपाल ।।
संकल्पक उसास
छोड़ू बीड़ी - हुक्का - पीनी ।
हर स्वरूपमे नाशक खैनी ।
संकल्पक सम्बल जँऽ ढीठगर,
के कहैछ - नञि छूटए खैनी ।।
* काँकोड़ = कैन्सर नामक बेमारीक पर्याय (CANCER-DISEASE) = खैनी खएनिहार बहुत लोक सभ केर दलील रहैत छन्हि कि फलना
तँऽ खैनी - बीड़ी - पीनी किछु सेवन नञि करैत छल पर तइयो ओकरा कैन्सर भऽ गेलै =
मतलब कि ओ लोकनि किन्नहु खैनी नञि छोड़ताह ।
मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट
पत्रिका “विदेह” केर 190म अंक (15 नवम्बर 2015) (वर्ष 8, मास 95, अंक 190) मे प्रकाशित ।
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