हे दैव
! किछु
तोँहीं कहह
(कविता)
हे दैव किछु तोँहीं कहह, छह भाग्य की लीखने हमर ।
कहियो रौदी, कहियो दाही, बीच भूकम्पक भँवर ।।
एकसँ उबरल रही
नञि,
दोसरक पछड़ा पड़ल
।
साँस लेबा केर ने पलखति, ई केहेन लफड़ा पड़ल ।।
हे विदेहक पुत्र
तोँ, विचलित किए छऽ भऽ रहल ।
आँखि फोलह आओर देखह, विश्वमे की भऽ रहल ।।
तोरे सनि सब लग समस्या, मूँह बओने अछि विकट ।
एहि धरा पर कतहुटा नञि, शान्त सनि भेटत विवर ।।
कतहु तापक छै समस्या, शीत वा धीपल मरू ।
कतहु सागर केर लहरि, बनबए
सुनामी - की कहू ।।
कतहु बिर्रो आ छै
अन्हर, काल केर प्रतिरूपमे ।
कतहु धरती - हिम धँसए, पतालभैरव कूपमे
।।
जँ समस्या तँऽ तकर, समाधान हम देने छियह ।
अपन बुद्धि - विवेक ताकह,
निदान हम देने छियह ।।
मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट
पत्रिका “विदेह” केर 190म अंक (15 नवम्बर 2015) (वर्ष 8, मास 95, अंक 190) मे प्रकाशित ।
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