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Sunday, 25 October 2015

पद्य - ‍१‍२‍६ - हे दैव ! किछु तोँहीं कहह (कविता)


हे दैव ! किछु तोँहीं कहह
(कविता)



हे दैव किछु तोँहीं कहह,  छह भाग्य की लीखने हमर ।
कहियो रौदी, कहियो  दाही,  बीच  भूकम्पक  भँवर ।।

एकसँ  उबरल  रही  नञि,   दोसरक  पछड़ा  पड़ल ।
साँस लेबा केर  ने पलखति,  ई केहेन  लफड़ा पड़ल ।।

हे  विदेहक  पुत्र  तोँ,  विचलित किए छऽ भऽ रहल ।
आँखि फोलह  आओर देखह, विश्वमे  की  भऽ रहल ।।

तोरे सनि सब लग समस्या,  मूँह बओने अछि विकट ।
एहि धरा पर कतहुटा नञि,  शान्त सनि भेटत विवर ।।

कतहु तापक  छै  समस्या,  शीत  वा  धीपल  मरू ।
कतहु सागर  केर लहरि, बनबए सुनामी  - की कहू ।।

कतहु  बिर्रो  आ  छै अन्हर,  काल  केर  प्रतिरूपमे ।
कतहु  धरती - हिम  धँसए,   पतालभैरव   कूपमे ।।

जँ समस्या  तँऽ  तकर,  समाधान  हम  देने छियह ।
अपन  बुद्धि - विवेक ताकह, निदान हम  देने छियह ।।




मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका विदेह केर ‍190म अंक (‍15 नवम्बर 2015) (वर्ष 8, मास 95, अंक ‍190) मे प्रकाशित ।



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