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Thursday 1 December 2011

पद्य - २७ - ककरा दृष्टि मे नीक, के कह ?

ककरा दृष्टि मे नीक, के कह ?
(कविता)

ककरा  दृष्टि  मे नीक  के कह ?
थिक कक्कर अभिलाषा  ककरा ।।



तन  सुन्नरि हम देखि रहल छी,
मन  सुन्नर - से  कोना  कहू ।
तन  केर सुन्नरता घातक थिक,
जँ सुन्नर मन  केर  बिना रहू ।।

अहँ सुन्नरि छी, बड़ सुन्नरि  छी,
चर्चा   पसरल  सौंसे  जग  मे ।
पर सुन्नरता की थिक - के कह ?
के  एकरा  फरिछाओत जग मे ??

नञि ठोस तरल वा गैस ई थिक,
हो  मानक  परिभाषा   जकरा ।
ककरा  दृष्टि  मे नीक  के कह ?
थिक कक्कर अभिलाषा  ककरा ।।

तन केर सुन्नरता  चञ्चल  थिक,
मन  केर  सुन्नरता   रहए थीर ।
मन सिन्धु  समान अथाह, स्वच्छ,
तन   बरसाती   धाराक   नीर ।।

तन भ्रामक थिक, तन नश्वर थिक,
नहि  प्रेमक थिक  ओ परिचायक ।
नञि  तऽ, श्रीकृष्णक  की  हस्ती ,
जे बनितथि  ओ  सभहक नायक ।।

सुनइत   छी   लैला  कारी  छलि,
कोयली  कारी  से  जनितहि  छी ।
आँखिक   पुतरी   होइत’छि   कारी,
गुण एकर विश्व भरि मनितहि छी ।।

हो  तन  सुन्नर,  हो  मन  सुन्नर,
तऽ  एहि सँ  बढ़ि कऽ की  होयत ?
नहि  चरम  मेल  दुहु  केर सम्भव,
जँ  होयत,  तऽ  बढ़ि  की होयत ??

 
विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४८, अंक ९५, ‍दिनांक - १ दिसम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।




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