बिसरि ने सकब
(गीत)
भेँटि सकलहुँ ने,सरिपहु बिसरि ने सकब ।
दूर रहितहुँ,
हृदय मे अहीं
तँ रहब ।।
एहि जिनगीक बाटेँ कतेको
भेटत ।
संग लागत अनेको, अनेको छँटत
।
मुदा हृदयक ओ कोना अहीं लए
अनामति,
पवित्रहि रहत ।
ओ पवित्रे रहत ।।
थीक जिनगी प्रवाहित, प्रवाहित
रहत ।
संग अपना मे बहुतो समाहित
करत ।
मुदा चञ्चल आवेगक श्रोतेँ
प्रतिष्ठित,
अहीं टा रहब ।
से अहीं टा रहब ।।
दीप बहुतो जरत,
चान बहुतो उगत ।
सूर्य बहुतो उगत, उगि कऽ
डुबिते रहत ।
मुदा जिनगी मे ध्रुव सन
दिशाबोधकारी,
अहीं टा छलहुँ ।
आ अहीं टा रहब ।।
सातो समुद्रो मे जल थिक
बहूते ।
छै सरिता अनेको, सरोवर
बहूते ।
मुदा ओ सरोवर पूरित प्रीति
पय सँ,
अहाँ लग रहए जे,
कतहुँ नञि भेटत ।
ऐ कतहु नञि भेटत ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली
इ – पत्रिका, वर्ष –५, मास –५४ , अंक –१०७ , ०१ जून २०१२ मे “स्तम्भ ३॰२”
मे प्रकाशित ।
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