नञि पत्र एकहु टा लीखल
(गीत)
पहु गेलाह परदेश सखी
!
दिन - मास कतेकहु बीतल
।
नञि पत्र एकहु टा लीखल ।*
नञि पत्र एकहु
टा लीखल ।।
सगर पहर
हुनिकहि छवि मनमे,
हुनिकहि पर
जी टाँगल ।
पर नञि सखि हुनिका सुधि कनिञो,
हम छी
केहेन अभागलि ।
विरह बेदना
केहेन सखी,
से हऽम एही
बेर
सीखल ।
नञि पत्र एकहु टा लीखल ।।
दिन मे हुनिकहि
याद अबैतछि,
राति मे हुनिकहि सपना ।
कौआ कुचरय
अहल भोर सँ,
तदपि ने आबथि सजना ।
भेल बसन्त सखी पतझड़,
नित नैन
रहैतछि तीतल ।
नञि पत्र
एकहु टा लीखल ।।
प्रियतम जञो दूरहि
रहताह,
की होयत रहि भरि
अङ्गना ?
ककरा लए शिंगार
करब,
ककरा लए पहिरब कङ्गना ?
चान कठोर रहैछ मुदा,
लगइत अछि अतिशय शीतल
।
नञि पत्र
एकहु टा लीखल ।।
* ई गीत आइ सँ १० - १५
साल पहिनुक सन्दर्भ मे लिखल गेल छल, जखन कि पूरा गाँव या परोपट्टा मे कतहु – कतहु
कोनो एक गोट टेलीफोन बूथ होइत छलै । आ ओहि टेलीफोन बूथ पर राति मे अमुक समय सँ
अमुक समय धरि STD कॉल केर पाइ आधा,
अमुक समय सँ अमुक समय धरि तेहाइ आ अमुक समय सँ अमुक समय धरि चौथाइ पाइ लगैत छलै ।
एहिना स्थिति मे कनिञा – बहुरिया लोकनि केँ परदेश मे काज कएनिहार अपन - अपन
प्रियतम सँ सीधा बात करब सम्भव नञि होइत छलन्हि ।
ओना मोबाइल केर चलती सँ बहुधा आब ई स्थिति नञि अछि तथापि मिथिला मे एखनहु एहि
गीतक सन्दर्भ किछु हद तक प्रासंगिक अछि ।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष –५, मास –५२ , अंक –१०३ , ०१ अप्रिल २०१२ मे “स्तम्भ ३॰७” मे प्रकाशनार्थ
।