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Saturday, 7 March 2015

पद्य - ‍१०४ - चन्दाक धन्धा (कविता)

चन्दाक धन्धा



धियापुता सभ दूइर भऽ रहल,  अपने ठोकि रहल छी  पीठ ।
पढ़बा - लिखबा केर उमेरमे, चन्दा माँगि रहल अछि  ढीठ ।।

सरस्वतीपूजा केर अवसरि,  हाथमे  कलम  आ पोथी नीक ।
पढ़बा - लिखबा छाड़ि कऽ देखू,  चन्दा माँगि रहल निर्भीक ।।

नान्हि – नान्हि टा छौंड़ा – छौंड़ी,  बाँस आ बत्ती हाथ नेने ।
सड़क जाम कऽ चन्दा माँगए,  अपन भविष्यकेँ कात केने ।।

ई  घटना  दृष्टान्त  मात्र  छी,  बैसल छी हम माथ धेने ।
पूजा  हो  वा  ईद – मोहर्रम,  चन्दा केर  सभ साथ धेने ।।

पूजा – पाठ आ धर्म – संस्कृति, हमरा नञि तकरासँ विरोध ।
उचित हरेक संस्कार – संस्कृति, जाधरि ने करइछ गतिरोध ।।

उत्सव – पाबनि – परब – तिहार, जिनगी केर छी रंग हजार ।
बिनु   एकरा  एकरस  जिनगी,  से  हमहूँ  मानै  छी  सरकार !!

पर स्वरूप ई कतेक उचित छी, अपनहिसभ कने करू विचार ।
धियापुता  देशक  भविष्य  छी, कतेक उचित एहेन बेबहार ।।



'विदेह' १७१ अंक ०१ फरबरी २०१५ (वर्ष मास ८६ अंक १७१) मे प्रकाशित ।

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