दू
शब्द - अहँक प्रति (कविता)
            हमर ई कविता मौलिक रूपसँ मैथिलीमे
लिखित अछि । ई कविता तहिया लिखल गेल छल जहिया हम कॉलेज
ऑफ आयुर्वेदमे (भारती विद्यापीठ, पूना)
B.A.M.S. द्वितीय ओ तृतीय वर्षक (2nd
& 3rd PROFESSIONAL YEAR) छात्र रही ।
ताहि समएमे महाविद्यालयक छात्र लोकनिमे EXTRA CO-CURRICULAR ACTIVITY केँ बढ़एबाक लेल “निर्मिती”
नामक WALL MAGAZINE पर कविता आदि
साहित्यिक कृति लगाओल जाइत छल जकर संयोजिका श्रीमति
इण्दापुरकर मैडम (तत्कालीन लेक्चरर आ बादमे विभागाध्यक्ष - शारीर क्रिया विभाग)
छलीह । हमहूँ मैथिली कविता लेल प्रस्ताव देल मुदा पाठक आन केओ नञि छलाह
तेँ ओकर हिन्दी अनुवाद (स्वयं द्वारा अनुदित) देब स्वीकृत भेल । ताहि अनुदित रचना
पर स्पष्ट उल्लेख रहैत छल कि मूल रचना “मैथिली” भाषामे अछि । प्रश्न उठि सकैत अछि कि मैथिली कविता मौलिक छल वा हिन्दी ? तेँ निर्मितीमे
देल गेल रचनाक छायाप्रति सेहो संगहि देल जा रहल अछि ।
अहँ जाइ छी तँऽ
जाउ, अहँक मर्जी,
सप्पत हमरा, हम
नञि रोकब ।
हमरासँ   दूर  
जँ   खुश   अपने,
सप्पत हमरा, हम
नञि रोकब ।।
अहँ केर
जिनगी,  अधिकार अहँक,
अहँ केर इच्छा,
जे  अहाँ 
करी ।
मधु - अमृत - पान
करी या फेर,
हालाहल - घट केर
वरण करी ।।
जाहि मृगतृष्णामे
भटकि रहल छी,
गीरह  बान्हू,  अहँ 
पछताएब ।
जाहि बाटसँ  उनटहि पएर 
गेलहुँ,
आपिस ओहिठाँ घुरि पुनि आएब ।।
जकरा   पाछाँ 
छी  भागि   रहल,
से तँऽ बस  माया छी 
केवल ।
अप्पन   मतिभ्रमकेँ  
थीर   करू,
पुनि सोचू की
छूटल - भेटल ।।
मैथिली
पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका “विदेह” केर 218म अंक (15 जनबरी 2017) (वर्ष 10, मास 109, अंक 218) केर “पद्य” स्तम्भमे प्रकाशित ।
 


 
 
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