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मिथिलाक पर्यायी नाँवसभ

मिथिलाभाषाक (मैथिलीक) बोलीसभ

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Tuesday 31 January 2017

पद्य - ‍२‍२‍‍७ - दू शब्द - अहँक प्रति (कविता)


दू शब्द - अहँक प्रति (कविता)







            हमर ई कविता मौलिक रूपसँ मैथिलीमे लिखित अछि । ई कविता तहिया लिखल गेल छल जहिया हम कॉलेज ऑफ आयुर्वेदमे (भारती विद्यापीठ, पूना) B.A.M.S. द्वितीय ओ तृतीय वर्षक (2nd & 3rd PROFESSIONAL YEAR) छात्र रही । ताहि समएमे महाविद्यालयक छात्र लोकनिमे EXTRA CO-CURRICULAR ACTIVITY केँ बढ़एबाक लेल “निर्मिती” नामक WALL MAGAZINE पर कविता आदि साहित्यिक कृति लगाओल जाइत छल जकर संयोजिका श्रीमति इण्दापुरकर मैडम (तत्कालीन लेक्चरर आ बादमे विभागाध्यक्ष - शारीर क्रिया विभाग) छलीह । हमहूँ मैथिली कविता लेल प्रस्ताव देल मुदा पाठक आन केओ नञि छलाह तेँ ओकर हिन्दी अनुवाद (स्वयं द्वारा अनुदित) देब स्वीकृत भेल । ताहि अनुदित रचना पर स्पष्ट उल्लेख रहैत छल कि मूल रचना मैथिली भाषामे अछि । प्रश्न उठि सकैत अछि कि मैथिली कविता मौलिक छल वा हिन्दी ? तेँ निर्मितीमे देल गेल रचनाक छायाप्रति सेहो संगहि देल जा रहल अछि ।





अहँ जाइ छी तँऽ जाउ, अहँक मर्जी,
सप्पत हमरा, हम नञि रोकब ।
हमरासँ   दूर   जँ   खुश   अपने,
सप्पत हमरा, हम नञि रोकब ।।

अहँ केर जिनगी,  अधिकार अहँक,
अहँ केर इच्छा, जे  अहाँ  करी ।
मधु - अमृत - पान करी या फेर,
हालाहल - घट केर वरण करी ।।

जाहि मृगतृष्णामे भटकि रहल छी,
गीरह  बान्हू,  अहँ  पछताएब ।
जाहि बाटसँ  उनटहि पएर  गेलहुँ,
आपिस ओहिठाँ घुरि पुनि आएब ।।

जकरा   पाछाँ  छी  भागि   रहल,
से तँऽ बस  माया छी  केवल ।
अप्पन   मतिभ्रमकेँ   थीर   करू,
पुनि सोचू की छूटल - भेटल ।।


मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका विदेह केर ‍218म अंक (‍15 जनबरी 2017) (वर्ष 10, मास 109, अंक ‍218) केर पद्य स्तम्भमे प्रकाशित ।



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