किताबी
कीड़ा (बाल कविता)
घूसल     रहैछ    किताबहिमे,
ओ  तँऽ  छै   “किताबी
कीड़ा” ।*१
एहिना  नञि  ई  कहबी  बनलै,
जञो   कहबी,   तँऽ   कीड़ा ।।*२
बहुतहि   दिनसँ  
राखल   जे,
पुरना  किताब 
जञो  फोलब ।
फोलितहि   उज्जर  छोट-क्षिण,
कीड़ाकेँ    भागैत     देखब
।।
माछक  छी  
आकार   ओकर,
माछहि सनि ध्रुव
दुहु नोकगर ।
बीचमे   छी  
फूलल - फूलल,
पएरक  लगाति  छै
चौड़गर ।।*३
संकेत आ किछु
रोचक तथ्य - 
*१ - मैथिलीक एक टा
पुरान कहबी ।
*२ - ओना तँऽ कतेकहु
तरहक कीड़ा किताबकेँ नोकशान पहुँचबैत अछि । पर ई विशिष्ट कीड़ा किताबी कीड़ाक
नामेँ प्रशिद्ध अछि ।
*३ - एहि कीड़ाक देह
कतेको खण्डमे विभक्त रहैत अछि आ जाहि खण्डसँ खोकर पएर जुड़ल रहैत अछि से सबसँ बेसी
चौड़गर होइत अछि ।
मैथिली पाक्षिक इण्टरनेट पत्रिका “विदेह” केर 198म अंक (15 मार्च 2016) (वर्ष 9, मास 99, अंक 198) केर “बालानां कृते” स्तम्भमे
प्रकाशित ।
 


 
 
No comments:
Post a Comment