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मिथिलाक पर्यायी नाँवसभ

मिथिलाभाषाक (मैथिलीक) बोलीसभ

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Saturday, 6 June 2015

पद्य - ‍१०७ - भूकम्प ‍- १ (कविता)

भूकम्प - ‍१


कतेक  जतनसँ  जे,  महल  बनओलियै ।
छोड़ि-छाड़ि  सभटा,  जान लऽ पड़एलियै ।।


डोलै छै  ई धरती,   बरसै  छै  अकाश ।
बीच फँसल प्राण, आइ दैबो केर ने  आश ।।

खसलै जे पाथर  पैघ,  पहिने  - दू  - राति ।
अन्हर - बिहाड़ि - पानि,  बुड़लै   जजाति ।।

काल्हिए  तँऽ  बहल  रहए,  पवन  उनचास ।
मिलि - जुलि  कएने  रहए,   बड़  उक्पात ।।

आइ - ई की भेलै ! धरती काँपै छै गे दाइ !
अप्रीलक पच्चीसम दिन,  बिसरब ने भाइ ।।

दू हजार पनरह  ईश्वी,  दुपहरिया केर बेर ।
बेरि–बेरि  काँपए धरती,  बिधना केर खेल ।।

काठमाण्डू भेल उजड़ी-उपटी, ढेरी छै लहास ।
अपनाकेँ ताकए-चिन्हए,  ककर छै सहास ??

बाँचल जे – सोचि  रहल,  करबै की आब ?
ककरा  लए  जिउब  हम, ककर छै आश ।।

महल – अटारी – घऽर,  गहना आ गुड़िया ।
के देखए ? काटए सब,  प्राणक अहुरिया ।।

भागि कऽ तँऽ एलै सब,  ठाढ़ देखू पड़ती ।
सोचि रहल,  करबै की - फटतै जँ धरती !!

दिन भरि  बीति गेलै,  रातिमे  की करबै ।
घऽरक  ने  साहस  होइए,  बाहरेमे रहबै ।।

बाहरो   अकाशसँ,   रहि – रहि  झहड़ए ।
क्षण-क्षण बीतए प्राण,  मोन सेहो हहरए ।।

कतेक  जतनसँ  जे,  महल  बनओलियै ।
छोड़ि-छाड़ि  सभटा,  जान लऽ पड़एलियै ।।

ईश्वरक  माया  सभ,  अपना की हाथमे ?
अड़जल – सिरजल,  किछु नञि  साथमे ।।

सोचि रहल,  करबै की - फटतै जँ धरती !




26 MAY 2015  कऽ प्रकाशनार्थ मैथिली दर्पण केर सम्पादकीय कार्यालयकेँ प्रेषित ।

"मैथिली दर्पण" पत्रिकाक जून-सितम्बर 2015 संयुक्तांकमे पृष्ठ 52 पर प्रकाशित ।



डॉ॰ शशिधर कुमर विदेह


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