भूकम्प - १
डोलै छै ई धरती, आ बरसै छै
अकाश ।
बीच फँसल प्राण, आइ दैबो केर ने आश ।।
खसलै जे पाथर पैघ, पहिने - दू - राति ।
अन्हर - बिहाड़ि - पानि, बुड़लै जजाति ।।
काल्हिए तँऽ बहल रहए, पवन उनचास ।
मिलि - जुलि कएने रहए, बड़ उक्पात ।।
आइ - ई की भेलै ! धरती काँपै छै गे दाइ !
अप्रीलक पच्चीसम दिन, बिसरब ने भाइ ।।
दू हजार पनरह ईश्वी, दुपहरिया केर बेर ।
बेरि–बेरि काँपए
धरती, बिधना केर खेल ।।
काठमाण्डू भेल उजड़ी-उपटी, ढेरी छै लहास ।
अपनाकेँ ताकए-चिन्हए, ककर छै सहास ??
बाँचल जे – सोचि रहल, करबै
की आब ?
ककरा लए जिउब हम,
ककर छै आश ।।
महल – अटारी – घऽर, गहना आ गुड़िया ।
के देखए ? काटए सब, प्राणक अहुरिया ।।
भागि कऽ तँऽ एलै सब, ठाढ़ देखू पड़ती ।
सोचि रहल, करबै की
- फटतै जँ धरती !!
दिन भरि बीति गेलै,
रातिमे की करबै ।
घऽरक ने साहस होइए,
बाहरेमे रहबै ।।
बाहरो अकाशसँ, रहि –
रहि झहड़ए ।
क्षण-क्षण बीतए प्राण, मोन सेहो हहरए ।।
कतेक जतनसँ जे, महल
बनओलियै ।
छोड़ि-छाड़ि सभटा, जान लऽ पड़एलियै ।।
ईश्वरक माया सभ, अपना
की हाथमे ?
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