बसात (हवा)
(बाल गीत)
(बाल गीत)
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।
स्पर्श मात्र कए सकइत छी , निज
आँखि सँ देखब सपने अछि ।।
ब्रम्हा बनि कखनहु सृजन करय,
कहुखन हर रूप
कराल धरय ।
कहुखन हरि सम
पालनकर्त्ता,
कहुखन यम - सद्यः काल बनय ।
ओ जिनगी छी एहि धरती केर,
सभ जीवक साँस समाहित अछि ।
एहि धरती पर जे
रिक्त लगय,
ओहि शुन्यक बीच प्रवाहित अछि।
नञि मूर्त रूप
पओलक कहियो, पर दिव्य रूप संवरने अछि ।
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।।
ओ योगवाहि, की नञि बुझल ?
ओ कऽ सकैछ ककरो संगति ।
जकरा संग, जा धरि मीत रहय,
तकरे सन गुण, तकरे रंगति ।
के नञि जनैछ पुरिबा – पछिबा,
मलयक बसात के नञि जनइछ ।
ककरा नञि अनुभव
चक्रवात,
लू – जेठक दुपहरिया तपइत ।
अनल, अनिल केर
संग पाबि, सोनक लंका केँ
डहने अछि ।
कहुखन एकसरि सरिता जल पर,
जनु जलतरंग ओ बजा
रहल ।
कखनहु मरु मे वा सागर
तट,
लीखि बालु सँ अपने मेटा रहल ।
ओकरा सोझाँ, के रहल
अडिग,
बिनु दर्प – दलित, के रहल ठाढ़ ?
कत विटप उखाड़ल, सिन्धु मथित,
भासित पहाड़, अपचित
पठार ।
अगनित पाथर केँ काटि – छाँटि, कत रूप - अनूप ओ गढ़ने अछि ।
ओ शिल्पकार छी एहि धरतीक, नञि जानि कते की रचने अछि ।।
“विदेह” पाक्षिक मैथिली इ – पत्रिका, वर्ष – ४ , मास – ४५ , अंक – ९०, दिनांक - १५
सितंबर २०११ मे प्रकाशित ।
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