ओ
कहलन्हि (कविता)
ओ कहलन्हि, धुर की लिखै
छी, बाउ ई सभ मैथिलीमे ।
छी किए  एते माथ  धुनइत,  अहँ
 अनेरो  मैथिलीमे ।।
ज्ञान  ओ  विज्ञान  केर छी, 
बात  ऊकरू  मैथिलीमे ।
अहँ कलमकेँ  क्लेश दै छी,  लीखि ई सभ  मैथिलीमे ।। 
के बूझत आ की बूझत,  के पढ़त  ई सभ  मैथिलीमे
?
जँ अपन  कल्याण चाही,  जुनि लिखू अहँ  मैथिलीमे ।।
मान  ओ  सम्मान
 बिरलेकेँ,   भेटैतछि
  मैथिलीमे
।
बजनिहारो  नञि  बुझैतछि,
 ओ  बजैतछि मैथिलीमे ।।
राष्ट्रभाषामे  लिखब  तँऽ,  नाम  होयत  देश  भरिमे ।
आङ्ग्लभाषा जँ लिखी,  चर्चा  होयत
 सगरो जगतमे ।।
हाथ  आओत  बेस
 कैंचा,  की  भेटैतछि
 मैथिलीमे ?
मैथिली  केर  क्षेत्र
 सीमीत,  के पढ़ैतछि 
मैथिलीमे ??
एक  साँसेँ  कहि
 सुनेला,  बेस  सभटा   मैथिलीमे ।
हम कहल - संतुष्ट छी हम,
लीखि सभटा  मैथिलीमे ।।
राष्ट्रभाषा - आङ्ग्लभाषा
– नीक  सभ  भाषा  लगैए
।
मातृभाषा  केर  बिना  पर,  सुन्न
सभ भाषा लगैए ।।
जे कहल से भल कहल, छी बेस
ओ अपनेक नजरिमे ।
डऽर जञो रहितए समाठक, माथ
ने रखितहुँ ऊखरिमे ।।
छी  जनैत  संस्कृत
 हम,  अंग्रेजी आ हिन्दी मराठी ।
द्वेष नञि, पर मैथिलीक छी
बात अलगे, अलग ठाठी ।।
याद  करू  नेनपन
अपन, कहियो जखन थाकल रही ।
पाबि  माएक कोर  तत्क्षण,  केहेन सुख भासल रही ।।
सएह सुख हमरा भेटैतछि,
लीखि कऽ किछु मैथिलीमे ।
मानसिक सुख बड़ भेटैतछि,  लीखि हमरा मैथिलीमे ।।
बात  जँ  मानी
 हमर  तँऽ, आउ एक बेर मैथिलीमे ।
मान - पैसा - मोह सभटा,  बिसरि जाएब मैथिलीमे ।।
01 FEB.
2015  कऽ प्रकाशनार्थ “विदेह - पाक्षिक मैथिली ई पत्रिका” केर सम्पादकीय कार्यालयकेँ प्रेषित ।
 



 
 
