ई की भेल !?!?!
(कविता)
अहँ कहैत
छी, ई की भेल !? !
हम कहैत छी, किछु
नञि भेल ।।
फलना जीतल,
चिलना हारल ।
अपन अपन सभ,
दुःख केर मारल ।
अपन बेगरतेँ,
सभकेओ भागल ।
दिन सूतल आ
रातिमे जागल ।
अहँकेँ अचरज लागि
रहल अछि ।
हमरा लए किछु नव
नहि भेल ।।
ओएह दिन
छै,
ओएह राति
छै ।
ओएह लोकसभ,
ओएह जजाति छै ।
देखले पाथर,
चिन्हले खाधि छै ।
ओएह हवा
छै,
ओएह आगि
छै ।
जन्मौटी
बच्चा भौंचक अछि ।
हम कहैत छी, देखले
खेल ।।
ओएह सृष्टि छै,
ओएह प्रलय छै ।
एक्कहि गति छै,
एक्कहि लय छै ।
ओएह भाव
छै,
ओएह हृदय छै ।
नीक−बेजाए, फेर
ओएह समय छै ।
पहिल दृष्टिमे सभ
किछु नूतन ।
दोसर सभटा
खेलले खेल ।।
कतऽसँ अयलहुँ,
कतऽ कऽ जायब ।
तकनहुँ पर
उत्तर नहि पायब ।
भरि जिनगी,
कतबहु बौआएब ।
घुरि - फीरि पुनि,
एहि ठामे आएब ।
परमेश्वर केर सभ
“खेला” छी ।
“शतक” अपन बूझी
बकलेल ।।
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