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Tuesday 15 November 2011

पद्य - २२ - पूणा – प्रवास (‍२)

   पूणा प्रवास (‍२)
     (कविता)

जे देखल, से कहि ने सकै छी ।
बिनु कहने, चुप रहि ने सकै छी ।
की पूणे नगरी छी रे भैय्या,
                      दूरहि देखि कऽ कहि ने सकै छी ।
                      जे देखल,  से कहि ने  सकै छी ।।

देव मानि,  आदर्श  बुझै  छी ।
जकरा हम सब नित्य पुजै छी ।
इन्द्रक कृत्य कतोक देवमय,
                    निज जीनगी अनुसरि ने सकै छी ।
                     जे देखल,  से कहि ने  सकै छी ।।

भोरक सूर्य - शान्त ओ सुन्नर ।
दूरहि,  चान - तरेगन  सुन्नर ।
लऽग सँ कक्कर दृश्य केहेन की,
                    कोना कहू, किछु कहि ने सकै छी ।
                     जे देखल,  से कहि ने  सकै छी ।।

पूणे - नगरी, विद्या केर नगरी ।
बहुत पैघ  बान्हल  तेँ  पगरी ।
नहि फूसि एकहु आखर एहि मे,
                   ओहो विद्या , जे ने वरणि सकै छी ।
                    जे देखल,  से कहि ने  सकै छी ।।

 
विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ४७, अंक , ‍दिनांक - १ नवम्बर २०११, स्तम्भ ३॰७ मे प्रकाशित ।

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