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मिथिलाक पर्यायी नाँवसभ

मिथिलाभाषाक (मैथिलीक) बोलीसभ

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Sunday 27 December 2015

सांध्य गोष्ठी - 27 दिसम्बर 2015


सांध्य गोष्ठी - 27 दिसम्बर 2015


आइ 27 दिसम्बर 2015 (रविदिन) कऽ श्रीमति प्रेमलता मिश्र ‘प्रेम’जीक हनुमाननगर (पटना) स्थित आवास पर एहि सालक अन्तिम ‘सांध्य गोष्ठी’ केर सफल आयोजन सम्पन्न भेल । ई बहुभाषिक कवि गोष्ठी थिक जाहिमे मैथिलीक अतिरिक्त आनहु भाषाक कवि लोकनि भाग लऽ सकैत छथि । ई पछिला आठ - नओ बरखसँ हरेक महीनाक अन्तिम “शनिदिन कऽ आयोजित कएल जाइत अछि । एहि बेर किछु कारणवश शनिदिन एकर आयोजन नञि भऽ सकल तेँ रविदिन कएल गेल छल । रविदिनक हमरा लेल सौभाग्यक बात रहल अन्यथा हम प्रवासमे रहबाक कारण एहिमे भाग लेबासँ वञ्चित रहि जयतहुँ । मात्र दू दिनक लेल पटना आयल रही आ एहिमे भाग लेबाक अवसरि हाथ लागल तेँ सौभाग्यक बात । एहि सुअवसर पर निम्न लोकनि उपस्थित छलाह - 

श्रीमति प्रेमलता मिश्र ‘प्रेम’
श्री महेश्वर मिश्र
श्री विजयनाथ झा
श्री छत्रानन्द सिंह झा ‘बटुक भाइ’
श्री जगदीश चन्द्र ठाकुर ‘अनिल’
श्री अशोक कुमार मिश्र
श्री सोमनाथ मिश्र
श्री मेधाकर झा
श्री कमलेन्द्र झा ‘कमल’
श्री पं॰ रघुवीर मल्लिक (शास्त्रीय संगीतज्ञ)
श्री कृष्णानन्द झा (पत्रकार)
डॉ॰ शशिधर कुमर ‘विदेह’ (हम स्वयं)

























एहि ठामसँ ‘सांध्य गोष्ठी’ नामक एकटा अनियतकालीन मैथिली पत्रिका सेहो प्रकाशित होइत अछि ।




Tuesday 15 December 2015

पद्य - ‍१‍३‍२ - ई की भेल !?! (कविता)



ई की भेल !?!?!
(कविता)



अहँ कहैत छी,   की  भेल !? !
हम कहैत छी, किछु नञि भेल ।।

फलना   जीतल,
चिलना  हारल ।
अपन अपन सभ,
दुःख केर मारल ।
अपन    बेगरतेँ,
सभकेओ भागल ।
दिन  सूतल 
रातिमे  जागल ।
अहँकेँ अचरज लागि रहल अछि ।
हमरा लए किछु नव नहि भेल ।।

ओएह   दिन  छै,
ओएह  राति  छै ।
ओएह    लोकसभ,
ओएह जजाति छै ।
देखले       पाथर,
चिन्हले  खाधि छै ।
ओएह   हवा    छै,
ओएह   आगि  छै ।
जन्मौटी बच्चा  भौंचक अछि ।
हम कहैत छी,  देखले  खेल ।।

ओएह  सृष्टि छै,
ओएह प्रलय छै ।
एक्कहि  गति छै,
एक्कहि लय छै ।
ओएह  भाव  छै,
ओएह हृदय छै ।
नीक−बेजाए, फेर
ओएह समय छै ।
पहिल दृष्टिमे सभ किछु नूतन ।
दोसर  सभटा   खेलले  खेल ।।

कतऽसँ   अयलहुँ,
कतऽ कऽ जायब ।
तकनहुँ      पर
उत्तर नहि पायब ।
भरि     जिनगी,
कतबहु बौआएब ।
घुरि - फीरि  पुनि,
एहि ठामे आएब ।
परमेश्वर केर सभ “खेला” छी ।
“शतक” अपन बूझी बकलेल ।।


पद्य - ‍१‍३‍१ - लेखकक जिनगीक छन्द (कविता)



लेखकक जिनगीक छन्द
(कविता)



गीत  कविता   निबन्ध ।
गजल खिस्सा   प्रबन्ध ।
लेखनीकेँ  लोक  बूझए, लेखकक  जिनगक  छन्द ।।

बात  तँऽ  किछु  सत्य सेहो,
बात  किछु  फूसियो रहै छै ।
बात  किछु   अपना  मनक,
किछु आन केर सेहो कहै छै ।
बात किछु  अनुभव आधारित,
आन  किछु   देखल−सुनल ।
बात  किछु  सहमति  मनक,
आ बात किछु जे नञि पटल ।
तेँ कोनहु साहित्यकारक,  लेखनी−जिनगी  स्वतन्त्र ।
लेखनीकेँ जुनि बूझू अहँ,  लेखकक जिनगीक छन्द ।।

लेखनी  नञि  बान्ह  मानए,
की  परक   की  अपन ।
लेखनी  नञि   भेद   बूझए,
की  यथार्थ   की सपन ।
लेखनी  हर   आढ़ि   धाँगए,
की सुखक   की दुःखक ।
लेखनी   तँऽ  सेन्ह   मारए,
आन    अप्पन  मनक ।
तेँ कोनहु लेखक केर जिनगीक,  लेखनी ने छी कलण ।
किछु तँऽ हुनि जिनगीक दर्पण, शेष स्वच्छन्दे फलन ।।

अंगूर  केर  दाना  सुकोमल,
कोमलहि   देखबामे   छी ।
नारिकेरक    भीतरी    
बाहरीक  तुलना   ने  छी ।
तेँ   कोनहु   लेखक   केर,
जीवनवृत्तमे से ध्यान राखी ।
लेखनीमे   दर्प   जिनगीक,
अछि कतेक अनुमान राखी ।
सएसँ  शुन्ना   धरिक  प्रतिशत,  केर  रहैछ  सम्बन्ध ।
आन  साक्ष्यक  ली  सहारा,  बूझि पड़ए जँ द्वन्द्व ।।