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Tuesday 8 May 2012

पद्य - ६६ - मिथिलाक धिया (बाल कविता)


मिथिलाक धिया
(बाल कविता)









हऽम धिया मिथिला मैथिल केर,
मैथिली    हम्मर      नाम ।
हमही   जानकी,   हम  वैदेही,
सीता      हमरहि     नाम ।।


भारतवर्षक   पूब    दिशा   मे,
मिथिला     हम्मर     गाम ।#
संग  नेपालक  पूब  ओ  दक्षिण,
हमरहि     बास     सुठाम ।।#


कहियो हम  मिथिलाक माटि पर,
ज्ञानक  दीप  जरओने   छी ।
की मिथिला ?  सौंसे  भूतल केँ,
हम विज्ञान  सिखओने  छी ।।


हमही   कहियो   छलहुँ   गार्गी,
हमही    मैत्रेयी     बनलहुँ ।
मण्डन   शंकर   वाग्युद्ध   केर,
सूत्रधार   हमही    बनलहुँ ।।


ब्रम्हज्ञान  लौकिक - परलौकिक,
हम भामति, सञ्चित कयलहुँ ।
पर की भेल ? आइ  हमरा अहँ,
शिक्षा सञो  वञ्चित कयलहुँ ।।


एहनो   दिवस  रहल  जहिया,
नञि  चिट्ठी - पत्री हम जानी ।*
मिथिला  केर  बेटी  बनि  कऽ,
हम  खुशी मनाबी,  वा कानी !!


एखनहु बड़ - बड़  गप्प हँकै छी,
धिया – सिया  कहि  पड़तारी ।
पर  की  अतबहि  अछि  दुलार,
की अतबहि केर हम अधिकारी ??


तिलकक नाँव सँ हक्कन कनै छी,
छी    सत्ते     ई    महामारी ।
पर बाबू   !   की  कहियो   सोचल,
अपनेक     की   जिम्मेदारी ??


की   अपनेक   ई  सोच   उचित,
जे बेटी  अनकहि घर  जयतीह ?**
पढ़ा - लिखा   कऽ   की  होयत,
जँ कमा – खटा अनकहि देतीह ??**


अनकर  दोष   कहू   हम   की,
जँ अपनहि लोकक  सोच  एहेन ।
गप्पक   छुच्छ   दुलारहि   की,
जँ  व्यवहारहि  मे  भोंक एहेन ??


सोचू  कक्का !  अपनहु  घर  मे,
कहियो तँ अनकहि धी अओतीह ।
अनकहु  सोच  अहीं  सन  जञो,
तँ भौजी  पढ़ल कोना अओतीह ??


छी किछु लोक तँ आओरो बढ़ि कऽ,
तथाकथित    सज्जन    समाज ।
कोखि मे खेलैत  अपनहि धी केर,
वध   करैछ,  सरिपहुँ  ने  लाज ।।


हमरहु    इच्छा   दुनिञा   देखी,
आ दुनिञा केर संग  बढ़ी – चली ।
हमरहु    इच्छा     खेली – कूदी,
आ संगहि संग हम पढ़ी – लिखी ।।


मुट्ठी  भरि   मैथिल  ललना  केर,
नाँव   गना    जुनि    बहटारू ।
अपन  हृदय  सँ  अपनहि   पूछू,
मूँह  घुमा,  जुनि  गप्प   टारू ।।








# एहि ठाम भारत आ नेपाल स्थित मिथिलाक चर्चा मात्र सांस्कृतिक व भाषाई एकरूपता केर सन्दर्भ मे कएल गेल अछि । एकर प्रत्यक्ष वा परोक्ष कोनहु राजनैतिक अर्थ अभिप्रेत नञि अछि । 




* सन्दर्भ देखू श्री “अक्कू” जीक गीतक पाँती


सखी ! पिया केँ पत्र आइ हम,  कोना  कऽ लिखबै  हे ?
ककरा  सँ  अ – आ – क – ख – ग – ङ  सिखबै  हे ??
...............................................................
पाँचे बरष सँ फुलडाली लए, तोड़ब सिखलहुँ फूल अरहूल ।
जानी ने हम चिट्ठी - पत्री, छी बेटी  मिथिला  केर मूल ।।





** ई विचार हमर अप्पन नञि थिक, परञ्च अपनहि मैथिल समाजक देन थिक । केओ गोटे जखन अपन बेटी केँ इन्जिनियरिंग केर पढ़ाई केर लेल पठाए रहल छलाह तँ हुनिकहि किछु सम्माननीय सर – सम्बन्धीक ई कटाक्ष स्वर छलन्हि । सभसँ दुखक बात जे ई स्वर अपन समाजक मुर्ख – अशिक्षित लोकनिक नञि अपितु किछु अति विद्वान, प्रतिष्ठित लोकनिक छलन्हि ।






डॉ॰ शशिधर कुमर “विदेह”                                
एम॰डी॰(आयु॰) कायचिकित्सा                                   
कॉलेज ऑफ आयुर्वेद एण्ड रिसर्च सेण्टर, निगडी प्राधिकरण, पूणा (महाराष्ट्र) ४११०४४




विदेहपाक्षिक मैथिली इ पत्रिका, वर्ष , मास ५२, अंक ‍१०४, दिनांक १५ अप्रिल २०१२, बालानां कृते स्तम्भ मे प्रकाशित ।



2 comments:

  1. बहुत सुन्नर आ जागरुकता वर्धक कविता ....

    ओना, ई कहु कि फोटो में के धिया के छथि ??..

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    Replies
    1. बहुत बहुत धन्यवाद विकासजी ।

      आगामी सेमेस्टरक लेल पहिनहि सँ बहुत बहुत शुभकामना ।

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